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________________ प्रणिपात-सूत्र २६५ क्यो न नष्ट कर दूं? वह उस शत्रु को शत्रु बनाने वाले अन्तर मन के विकारो को नहीं देखता, उन्हे नष्ट करने की बात नही सोचता । इसके विपरीत, सिंह की प्रकृति लाठी पकडने की नही होती, प्रत्युत लाठी वाले को पकडने की होती है। ससार के वीतराग महापुरुष भी सिंह के समान अपने शत्र को शत्रु नहीं समझते, प्रत्युत उसके मन मे रहे हुए विकारो को ही शत्र समझते है। वस्तुत , शत्रु को पैदा करने वाले मन के विकार ही तो है । अत उनका अाक्रमण व्यक्ति पर न होकर व्यक्ति के विकारो पर होता है। अपने दया, क्षमा आदि सद्गुणो के प्रभाव से दूसरो के विकारो को शान्त करते है । फलत शत्रु को भी मित्र बना लेते है। तीर्थ कर भगवान उक्त विवेचन के प्रकाश में पुरुष-सिह है, पुरुषो मे सिंह की वृत्ति रखते हैं। पुरुषवर पुण्डरीक तीर्थ कर भगवान् पुरुषो मे श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के समान होते हैं । भगवान् को पुण्डरीक कमल की उपमा बडी ही सुन्दर दी गई है । पुण्डरीक श्वेत कमल का नाम है । दूसरे कमलो की अपेक्षा श्वेत कमल सौन्दर्य एव सुगन्ध मे अतीव उत्कृष्ट होता है । सम्पूर्ण सरोवर एक श्वेत कमल के द्वारा जितना सुगन्धित हो सकता है, उतना अन्य हजारो कमलो से नही हो सकता। दूर-दूर से भ्रमर-वृन्द उसकी सुगन्ध से आकर्षित होकर चले आते है, फलत कमल के आस-पास भंवरो का एक विराट् मेला सा लगा रहता है। और इधर कमल बिना किसी स्वार्थभाव के दिन-रात अपनी सुगन्ध विश्व को अर्पण करता रहता है । न उसे किसी प्रकार के बदले की भूख है, और न कोई अन्य वासना | चुप-चाप मूक सेवा करना ही, कमल के उच्च जीवन का आदर्श है। तीर्थ करदेव भी मानव-सरोवर मे सर्वश्रेष्ठ कमल माने गए है। उनके आध्यात्मिक जीवन की सुगन्ध अनन्त होती है। अपने समय मे वे अहिंसा और सत्य आदि सद्गुणो की सुगन्ध सर्वत्र फैला देते है। पुण्डरीक की सुगन्ध का अस्तित्व तो वर्तमान कालावच्छेदेन ही होता है, किन्तु तीर्थ कर देवो के जीवन की सुगन्ध तो हजारो है। मेवे अहिंसा की सुगन्ध कदवा के
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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