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सामायिक प्रवचन
भाषा से परिचय प्राप्त करके अर्थों को समझने का प्रयत्न किया जाए। बिना भाव समझे हुए मूल का वास्तविक आनन्द प्राप नही उठा सकते। आचार्य याज्ञवल्क्य कहते है कि "बिना अर्थ समझे हुए शास्त्रपाठी की ठीक वही दशा होती है, जो दलदल मे फसी हुई गाय की होती है । वह न बाहर आने लायक रहती है और न अन्दर जल तक पहुँचने के योग्य ही । उभयतोभ्रष्टदशा मे ही अपना जीवन समाप्त कर देती है ।"
आजकल अर्थ की ओर ध्यान न देने की हमारी अज्ञानता बडा ही भयंकर रूप पकड गयी है । न शुद्ध का पता न, अशुद्ध का । एक रेलगाडी की तरह पाठो के उच्चारण किये जाते है, जो तटस्थ विद्वान् श्रोता को हमारी मूर्खता का परिचय कराये बिना नही रहते । अर्थ को न समझने से बहुत कुछ भ्रान्तिया भी फैली रहती है । हँसी की बात है कि - " एक बाई ' करेमि भते' का पाठ पढते हुए 'जाव' के स्थान मे 'आव' कहती थी। पूछने पर उसने तर्क के साथ कहा कि सामायिक को तो बुलाना है, अत उसे 'जाव' क्यो कहे ? 'आव' कहना चाहिए ।"
इस प्रकार के एक नही, अनेक उदाहरण आपको मिल सकते है । साधको का कर्तव्य है कि दुनियादारी की भझटो से अवकाश निकाल कर अवश्य ही अर्थ जानने वा प्रयत्न करे 1 कुछ अधिक पाठ नही है । थोड़े से पाठो को समझ लेना आपके लिए आसान ही होगा, मुश्किल नही । लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक मे इसीलिए यह प्रयत्न किया है, आशा है इससे कुछ लाभ उठाया जाएगा
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