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२२ ॥
दो घड़ी ही क्यों ?
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सामायिक का कितना काल है ? यह प्रश्न आजकल काफी चर्चा का विषय बना हुआ है। आज का मनुष्य सासारिक झझटो के नीचे अपने-आपको इतना फंसाये जा रहा है कि वह अपनी आत्म-कल्याणकारिणी धार्मिक क्रियाओ को करने के लिए भी अवकाश नही निकालना चाहता। यदि चाहता भी है, तो इतना चाहता है कि जल्दी से जल्दी कर-कराके छटकारा मिले और बस घर के काम-धन्धे मे लगे। इसी मनोवृत्ति के प्रतिनिधि कितने ही सज्जन कहते है कि “सामायिक स्वीकार करने का पाठ 'करेमि भते' है। उसमें केवल 'जाव नियम' पाठ है, अर्थात् जब तक नियम है, तब तक सामायिक है । यहा काल के सम्बन्ध मे कोई निश्चित धारणा नही बताई गई है। अत साधक की इच्छा पर है कि वह जितनी देर ठीक समझे, उतनी देर सामायिक करे। दो घड़ी का ही बन्धन क्यो ?"
कालमर्यादा व्यवस्था के लिए
इस चर्चा के उत्तर मे निवेदन है कि हा, पागम-साहित्य मे सामायिक के लिए निश्चित काल का उल्लेख नही है। सामायिक के पाठ मे भी कालमर्यादा के लिए 'जाव नियम' ही पाठ है, 'पुहुत्त' आदि नही । परन्तु, सर्वसाधारण जनता को नियमबद्ध करने के लिए प्राचीन प्राचार्यों ने दो घड़ी को मर्यादा