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सामायिक-प्रवचन
बाँध दी है । यदि मर्यादा न बाँधी जाती, तो बहुत अव्यवस्था हो जाती । कोई दो घडी सामायिक करता, तो कोई घडी भर ही। कोई आध घडी मे ही छमतर करके निपट लेता, तो कोई-कोई दश-पाच मिनटो मे ही वेडा पार कर लेता। यदि प्राचीन काल से सामायिक की काल-मर्यादा निश्चित न होती तो आज के श्रद्धा-हीन युग मे न मालूम सामायिक की क्या दुर्गति होती ? किस प्रकार उसे मजाक की चीज बना लिया जाता?
मनोवैज्ञानिक दृष्टि
मनोविज्ञान की दृष्टि से भी काल-मर्यादा आवश्यक है। धार्मिक क्या, किसी भी प्रकार की ड्यूटी, यदि निश्चित समय के साथ न बधी हो, तो मनुष्य मे शैथिल्य आ जाता है, कर्तव्य के प्रति उपेक्षा का भाव होने लगता है, फलत धीरे-धीरे अल्पसे अल्प काल की ओर सरकता हुआ मनुष्य अन्त मे केवल अभाव पर पा खडा होता है । अत प्राचार्यों ने सामायिक का काल दो घडी ठीक ही निश्चित किया है । प्राचार्य हेमचन्द्र भी सामायिक के लिए मुहूर्त-भर काल का स्पष्ट उल्लेख करते हैं
त्यक्तार्त-रौद्रध्यानस्य, त्यक्तसावद्यकर्मण । मुहूर्त समता या ता, विदु सामायिकव्रतम् ।।
-योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश श्लोक ८२
सामायिक प्रत्याख्यान है
मूल आगम-साहित्य मे प्रत्येक धार्मिक क्रिया के लिए कालमर्यादा का विधान है। मुनिचर्या के लिए यावज्जीवन, पौषधव्रत के लिए दिन-रात और व्रत आदि के लिए चतुर्थभक्त आदि का उल्लेख है। सामायिक भी प्रत्याख्यान है, अत प्रश्न होता है कि पापो का परित्याग कितनी देर के लिए किया है ? छोटे-सेछोटा और बड़े-से बडा प्रत्येक प्रत्याख्यान काल-मर्यादा से बँधा हुआ होता है। शास्त्रीयदृष्टि से श्रावक का पचम गुण