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दो घडी ही क्यो?
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स्थान है, अत वहाँ अप्रत्याख्यान क्रिया नही हो सकती। अप्रत्याख्यानक्रिया चतुर्थ गुणस्थान तक ही है। अत सामायिक मे भी प्रत्याख्यान की दृष्टि से काल-मर्यादा का निश्चय रखना आवश्यक है।
दश प्रत्याख्यानो मे नमस्कारसहित अर्थात् नवकारसी का प्रत्याख्यान किया जाता है । आगम मे नवकारसी के काल का पौरुषी आदि के समान किसी भी प्रकार का उल्लेख नही है। केवल इतना कहा गया है कि "जब तक प्रत्याख्यान पारने के लिए नमस्कारनवकार मन्त्र न पढूं, तब तक अन्न-जल का त्याग करता हूँ।" परन्तु आप देखते है कि नवकारसी के लिए पूर्व परम्परा से मुहूर्तभर का काल माना जा रहा है। मुहूर्त से अल्पकाल के लिए नवकारसी का प्रत्याख्यान नही किया जाता। इसी प्रकार सामायिक के लिए भी समझिए।
"इह सावधयोगप्रत्यास्यानरूपस्य सामायिकस्य मुहूर्तमानता सिद्धान्तेऽनुक्ताऽपि ज्ञातव्या, प्रत्याख्यानकालम्य जघन्यतोऽपि मुहूर्तमाग्रत्वान्नमस्कारसहितप्रत्याख्यानवदिति ।"
-जिनलाभ सूरि, प्रात्म-प्रबोध, द्वितीय प्रकाश
ध्यान को दृष्टि
मुहूर्त-भर का काल ही क्यो निश्चित किया गया ? एक घडी या आध घडी अथवा तीन या चार घडी भी कर सकते थे ? यह प्रश्न मुन्दर है, विचारणीय है । इसके उत्तर के लिए हमे आगमो की शरण मे जाना पडेगा । यह आगमिक नियम है कि साधारण साधक का एक विचार, एक सकल्प, एक भाव, एक ध्यान अधिक-से-अधिक अन्तर्मुहूर्त-भर ही चालू रह सकता है । अन्तर्मुहूर्त के बाद अवश्य ही विचारो मे परिवर्तन आ जाता है। इस सम्बन्ध मे भद्रवाह स्वामी ने कहा है"अतोमुहुत्तकाल चित्तस्सेगग्गया हवइ भाण"
--आवश्यकनियुक्ति १४५८