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________________ २३८ सामायिक सूत्र है । परन्तु जो कार्य समभाव के साधक हो, कषाय-भाव को घटाने वाले हो, वे अरिहन्त सिद्ध की स्तुति, ज्ञान का अभ्यास, गुरु-जनो का सत्कार, ध्यान, जीवदया, सत्य आदि अवश्य करणीय है । प्रस्तुत 'सावर्ण्य' अर्थ पर उन सज्जनो को विचार करना चाहिए, जो सामायिक मे जीव दया के कार्य मे पाप बताते है । यदि सामायिक के साधक ने किसी ऊँचाई से गिरते हुए अबोध बालक को सावधान कर दिया, किसी अधे श्रावक के आसन के नीचे दबते हुए जीव को वचा दिया, तो वहाँ निन्दा के योग्य कौन-सा कार्य ? हुग्रा क्रोध, मान, माया और लोभ मे से किस कषाय-भाव का वहाँ उदय हुआ ? किस कपाय की तीव्र परिणति हुई, जिससे एकान्त पाप-कर्म का बध हुआ ? किसी भी सत्य को समझने के लिए हृदय को निष्पक्ष एव सरल बनाना ही होगा । जब तक निष्पक्षता के साथ दर्शन-शास्त्र की गम्भीरता मे नही उतरा जाएगा, तब तक सत्य के दर्शन नही हो सकते । त सत्य बात तो यह है कि किसी भी प्रवृत्ति मे स्वय प्रवृत्ति के रूप मे पाप नही है । पाप है उस प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि मे रहने वाले स्वार्थ भाव मे, कपाय-भाव मे, राग-द्वेष के दुर्भाव मे । यदि यह सब कुछ नही है, साधक के हृदय में पवित्र एव निर्मल करुणा यदि काही भाव है, तो फिर किसी भी प्रकार का पाप नही है | काल मर्यादा : दो घड़ी की * मूल पाठ मे 'जाव नियम' है, उससे दो घड़ी का अर्थ कैसे लिया जाता है ? 'जाव नियम' का भाव तो 'जब तक नियम है, तव तक ' - ऐसा होता है ? इसका फलितार्थ तो यह हुआ कि यदि दश या वीस मिनट आदि की सामायिक करनी हो, तो वह भी की जा सकती है ? उक्त प्रश्न का उत्तर यह है कि ग्रागम साहित्य मे गृहस्थ की सामायिक के काल का कोई विशेष उल्लेख नही है । आगम मे जहाँ कही भी सामायिक चारित्र का वर्णन श्राया है, वहाँ यही कहा है कि सामायिक दो प्रकार की है— इत्थरिक और यावत्कथिक ।
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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