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प्रतिज्ञा-सूत्र
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हैं कि अरिहन्त आदि की स्तुति और ज्ञानादि की आराधना यदि निष्काम-भाव से करे, तो हमे सीधा मोक्ष पद प्राप्त होगा। यदि सयोग-वश कभी राग-भाव हो भी जाए तो वह भी तीर्थ करादि पद का कारण भूत होने से लाभप्रद ही है, हानिप्रद नही। इसी प्रकार हम भी कहते है कि सामायिक मे या किसी भी अन्य दशा मे जीवरक्षा करना मनुष्य का एक कर्तव्य है, उसमे राग कैसा ? वह तो कर्म-निर्जरा का मार्ग है। यदि किसी साधक को कुछ राग-भाव श्रा भी जाए, तब भी कोई हानि नही। वह उपर्युक्त दृष्टि से पुण्यानुवन्धी पुण्य का मार्ग है, अत एकान्त त्याज्य नही।
'सावज्ज' का सस्कृत रूप 'सावर्ण्य' भी होता है। सावर्ण्य का अर्थ है-निन्दनीय, निन्दा के योग्य । अत जो कार्य निन्दनीय हो, निन्दा के योग्य हो, उनका सामायिक मे त्याग किया जाता है। सामायिक की साधना, एक अतीव पवित्र निर्मल साधना है। इसमे
आत्मा को निन्दनीय कर्मों से बचाकर, अलग रख कर निर्मल किया जाता है । आत्मा को मलिन बनाने वाले, निन्दित करने वाले कपाय भाव है, और कोई नही । जिन प्रवृत्तियो के मूल मे कषाय भाव रहता हो, क्रोध, मान, माया और लोभ का स्पर्श रहता हो, वे सब सावज्य कार्य हैं। शास्त्रकार कहते है कि कर्म-बन्ध का मूल एकमात्र कषाय-भाव मे है, अन्यत्र नही। ज्योज्यो साधक का कषाय मद होता है, त्यो-त्यो कर्म-बन्ध भी मन्द होता है, और इसके विपरीत ज्यो-ज्यो कषाय-भाव की तीव्रता होती है, त्यो-त्यो कर्म-बन्ध की भी तीव्रता होती है। जब कषाय भाव का पूर्णतया अभाव हो जाता है, तब साम्परायिक कर्म-बन्ध का भी अभाव हो जाता है। और, जब साम्परायिक कर्म-बन्ध का अभाव होता है, तो साधक झटपट केवलज्ञान एव केवल-दर्शन की भूमिका पर पहुच जाता है। अत आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करना है कि कौन कार्य निन्दनीय है और कौन नही ? इसका सीधा-सा उत्तर है कि जिन कार्यो की पृष्ठ-भूमि मे कषायभावना रही हुई हो, वे निन्दनीय है और जिन कार्यो की पृष्ठ-भूमि मे कषायभावना न हो, अथवा प्रशस्त उद्देश्य-पूर्वक अल्प कषाय-भावना हो, तो वे निन्दनीय नही है। अस्तु, सामायिक मे साधक को वह कार्य नही करना चाहिए, जो क्रोध, मान, आदि काषायिक परिणति के कारण होता