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सामायिक-सूत्र
बच सकेंगे । अत राग का मूल मोह मे, आसक्ति मे, ससार की वासना मे है, जीव रक्षा आदि धर्म-प्रवृत्ति मे नही । जो सारे चैतन्य जगत् के साथ एकतान हो गया है, अखिल चिद्-विश्व के प्रति निष्काम एव निष्कपट-भाव से तादात्म्य की अनुभूति करने लग गया है, वह प्राणिमात्र के दु ख को अनुभव करेगा, उसे दूर करने का यथाशक्ति प्रयत्न करेगा, फिर भी बेलाग रहेगा, राग मे नही फसेगा।
आप कह सकते है कि साधक की भूमिका साधारण है, अत वह इतना नि स्पृह एव निर्मोही नही हो सकता कि जीव-रक्षा करे और राग-भाव न रखे। कोई महान् आत्मा ही उस उच्च भूमिका पर पहुच सकता है, जो दुखित जीवो की रक्षा करे और वह भी इतने निस्पृह भाव से, एव कर्तव्य बुद्धि से करे कि उसे किसी भी प्रकार के राग का स्पर्श न हो। परन्तु, साधारण भूमिका का साधक तो राग-भाव से अस्पृष्ट नही रह सकता। इसके उत्तर मे कहना है कि--"अच्छा आपकी वात ही सही, पर इसमे हानि क्या है ? क्योकि, साधक की आध्यात्मिक दुर्बलता के कारण यदि जीवदया के समय राग-भाव हो भी जाता है, तो वह पतन का कारण नहीं होता, प्रत्युत पुण्यानुवन्धी पुण्य का कारण होता है। पुण्यानुबन्धी पुण्य का अर्थ है कि अशुभ कर्म की अधिकाश मे निर्जरा होती है और शुभ कर्म का बन्ध होता है। वह शुभ कर्म यहाँ भी सुख-जनक होता है और भविष्य मे भी । पुण्यानुवन्धी पुण्य का कर्ता सुख-पूर्वक मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। वह जहाँ भी जाता है, इच्छानुसार ऐश्वर्य प्राप्त करता है और उस ऐश्वर्य को स्वय भी भोगता है एवं उससे जन-कल्याण भी करता है। जैन-धर्म के तीर्थ कर इसी उच्च पुण्यानुवन्धी पुण्य के भागी है। तीर्थ कर नाम गोत्र उत्कृष्ट पुण्य की दशा में प्राप्त होता है। आपको मालूम है, तीर्थ कर नाम गोत्र कैसे बँधता है ? अरिहन्त सिद्ध भगवान् का गुणगान करने से, जान दर्शन की आराधना करने से, सेवा करने से, आदि आदि । इसका अर्थ तो यह हुआ कि अरिहन्त सिद्ध भगवान् की स्तुति करना भी राग भाव है, ज्ञान एव दर्शन की पाराधना भी राग-भाव है ? यदि ऐसा है, तब तो आपके विचार से वह भी अकर्तव्य ही ठहरेगा। यदि यह सव भी अकर्तव्य ही है, फिर साधना के नाम से हमारे पास रहेगा क्या? आप कह सकते