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प्रतिज्ञा-सूत्र इत्वरिक अल्पकाल की होती है और यावत्कथिक यावज्जीवन की। परन्तु, प्राचीन प्राचार्यों ने दो घडी का नियम निश्चित कर दिया है। इस निश्चय का कारण काल-सम्बन्धी अव्यवस्था को दूर करना है। दो घडी का एक मुहूर्त होता है, अत जितनी भी सामायिक करनी हो, उसी हिसाब से 'जावनियम' के आगे मुहूर्त एक, मुहूर्त दो इत्यादि वोलना चाहिए।
अनुमोदन खुला क्यो ?
सामायिक मे हिंसा, असत्य आदि पाप-कर्म का त्याग केवल कृत और कारित रूप से ही किया जाता है, अनुमोदन खुला रहता है। यहाँ प्रश्न है कि सामायिक मे पाप-कर्म स्वय करना नहीं और दूसरो से करवाना भी नहीं, परन्तु क्या पाप-कर्म का अनुमोदन किया जा सकता है ? यह तो कुछ उचित नही जान पडता कि सामायिक मे बैठने वाला साधक हिंसा की प्रशसा करे, असत्य का समर्थन करे, चोरी और व्यभिचार की घटना के लिए वाह-वाह करे, किसी को पिटते-मरते देखकर-'खूब अच्छा किया' कहे, तो यह सामायिक क्या हुई, एक प्रकार का मिथ्याचार ही हो गया ।
उत्तर मे निवेदन है कि सामायिक मे अनुमोदन अवश्य खला रहता है, परन्तु उसका यह अर्थ नही कि सामायिक मे बैठने वाला साधक पापाचार की प्रशसा करे, अनुमोदन करे। सामायिक मे तो पापाचार के प्रति प्रशसा का कुछ भी भाव हृदय मे न रहना चाहिए। सामायिक मे, किसी भी प्रकार का पापाचार हो, न स्वय करना है, न दूसरो से करवाना है और न करने वालो का अनुमोदन करना है। सामायिक तो अन्तरात्मा मे-रमण करने की-लीन होने की साधना है, अत उसमे पापाचार के समर्थन का क्या स्थान ?
अव यह प्रष्टव्य हो सकता है कि जब सामायिक मे पापाचार का समर्थन अनुचित एव अकरणीय है, तब सावध योग का अनुमोदन खुला रहने का क्या तात्पर्य है ? तात्पर्य यह है कि श्रावक गहस्थ की भूमिका का प्राणी है। उसका एक पाव ससार-मार्ग मे है, तो दूसरा मोक्ष-मार्ग मे है। वह सासारिक प्रपचो का पूर्ण त्यागी नही