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________________ २४० सामायिक-सूत्र है। अतएव जब वह सामायिक मे बैठता है, तब भी घर-गृहस्थी की ममता का पूर्णतया त्याग नही कर सकता है। हाँ, तो घर पर जो कुछ भी आरभ-समारभ होता रहता है, दूकान पर जो कुछ भी कारोबार चला करता है, कारखाने आदि मे जो-कुछ भी द्वन्द्व मचता रहता है, उसकी सामायिक करते समय श्चावक प्रशसा नही कर सकता। यदि वह ऐसा करता है, तो वह सामायिक नही है, परन्तु जो वहाँ की ममता का सूक्ष्म तार अात्मा से बँधा रहता है, वह नही कट पाता है। अत सामायिक मे अनुमोदन का भाग खुला रहने का यही तात्पर्य है, यही रहस्य है और कुछ नही । भगवती-सूत्र मे सामायिक-गत ममता का विषय बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया गपा है । आत्मदोषो को निन्दा सामायिक के पाठ मे 'निन्दामि' शब्द आता है, उसका अर्थ है-मैं निन्दा करता हूँ। प्रश्न है, किसकी निन्दा ? किस प्रकार की निन्दा? निन्दा चाहे अपनी की जाए या दूसरो की, दोनो ही तरह से पाप है। अपनी निन्दा करने से अपने मे उत्साह का अभाव होता है, हीनता एव दीनता का भाव जागृत होता है। आत्मा चिन्ता तथा शोक से व्याकुल होने लगता है, अतरग मे अपने प्रति द्वप की भावना भी उत्पन्न होने लगती है। अत अपनी निन्दा भी कोई धर्म नही, पाप ही है। अब रही दूसरो की निन्दा, यह तो प्रत्यक्षत ही बडा भयकर पाप है। दूसरो से घणा करना, द्वष रखना, उन्हे जनता की आखो मे गिराना, उनके हृदय को विक्षुब्ध करना, पाप नही तो क्या धर्म है ? दूसरो की निन्दा करना, एक प्रकार से उनका मल खाना है। भारतीय साधको ने दूसरो की निन्दा करने वाले को विष्ठा खाने वाले सूअर की उपमा दी है। हा | कितना जघन्य कार्य है । उत्तर मे कहना है कि यहाँ निन्दा का अभिप्राय न अपनी निन्दा है, और न दूसरो की निन्दा। यहाँ तो पाप की, पापाचरण की, दूपित जीवन की निन्दा करना अभीष्ट है। अपने मे जो दुर्गुण हो, दोप हो, उनकी खूब डटकर निन्दा कीजिए। यदि साधक अपने
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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