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प्रतिज्ञा-सूत्र
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दोषो को दोष के रूप मे न देख सका, भूल को भूल न समझ सका और उसके लिए अपने हृदय मे सहज भाव से पश्चात्ताप का अनुभव न कर सका, तो वह साधक ही कैसा ? दोषो की निन्दा, एक प्रकार का पश्चात्ताप है। और पश्चात्ताप, आध्यात्मिक-क्षेत्र मे पाप-मल को भस्म करने के लिए एवं आत्मा को शुद्ध निर्मल बनाने के लिए एक अत्यन्त तीन अग्नि माना गया है। जिस प्रकार अग्नि मे तपकर सोना निखर जाता है, उसी प्रकार पश्चात्ताप की अग्नि मे तपकर साधक की आत्मा भी निखर उठती है, निर्मल हो जाती है। आत्मा मे मल कषाय-भाव का ही है, और कुछ नही । अत. कषाय-भाव की निन्दा ही यहाँ अपेक्षित है।
सामायिक करते समय साधक विभाव-परिणति से स्वभावपरिणति मे आता है, बाहर से सिमट कर अन्तर मे प्रवेश करता है। पाठक जानना चाहेगे कि स्वभाव परिणति क्या है और विभाव परिणति क्या है ? जब आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य और तप आदि की भावना मे ढलता है, तब वह स्वभाव परिणति मे ढलता है, अपने-आप मे प्रवेश करता है। ज्ञान, दर्शन आदि आत्मा का अपना ही स्वभाव है, एक प्रकार से आत्मा ज्ञानादि-रूप ही है, अत ज्ञानादि की उपासना अपनी ही उपासना है, अपने स्वभाव की ही उपासना है। इसे स्वभाव परिणति कहते है। जब आत्मा पूर्ण-रूप से स्वभाव मे आ जाएगा, अपने-आप मे ही समा जाएगा, तभी वह केवल ज्ञान, केवलदर्शन का महाप्रकाश पाएगा, मोक्ष मे अजर-अमर बन जाएगा। क्योकि, सदाकाल के लिए अपने पूर्ण स्वभाव का पा लेना ही तो दार्शनिक भाषा मे मोक्ष है ।
अब देखिए, विभाव परिणति क्या है ? पानी स्वभावत शीतल होता है, यह उसकी स्वभाव परिणति है, परन्तु जब वह उष्ण होता है, अग्नि के सम्पर्क से अपने मे उष्णता लेता है, तब वह स्वभाव से शीतल होकर भी उप्ण कहा जाता है। उष्णता पानी का स्वभाव नही, विभाव है। स्वभाव अपने-आप होता है-विभाव दूसरे के सम्पर्क से । इसी प्रकार आत्मा स्वभावतः क्षमाशील है, विनम्र है, सरल है, सतोषी है, परन्तु कर्मों के सम्पर्क से क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी बना हुआ है। अस्तु जब आत्मा कषाय के साथ एकरूप होता है, तब वह स्व-भाव मे न रह कर विभाव