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सामायिक-सूत्र
भावार्थ आत्मा की विशेष उत्कृष्टता-श्रेष्ठता के लिए. प्रायश्चित्त के लिए, विशेष निर्मलता के लिए, शल्य-रहित होने के लिए, पाप कर्मों का पूर्णतया विनाश करने के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हू-अर्थात् आत्म-विकास की प्राप्ति के लिए शरीरसम्बन्धी समस्त चचल व्यापारो का त्याग करता हूँ, विशुद्ध चिन्तन करता हूँ।
विवेचन ___ यह उत्तरी-करण-सूत्र है। इसके द्वारा ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण से शुद्ध पात्मा मे बाकी रही हुई सूक्ष्म मलिनता को भी दूर करने के लिए विशेष परिष्कार-स्वरूप कायोत्सर्ग का सकल्प किया जाता है। जीवन मे जरा भी मलिनता न रहने पाये, यह महान् आदर्श, उक्त सूत्र के द्वारा ध्वनित होता है ।
व्रत शुद्धि के लिए संस्कार
सस्कार के तीन प्रकार माने गए हैं-दोप-मार्जन, हीनाग-पूर्ति और अतिशयाधायक । इन तीनो सस्कारो के द्वारा प्रत्येक पदार्थ अपनी विशिष्ट अवस्थाश्रो मे पहुच जाता है। एक सस्कार वह है, जो सर्वप्रथम दोपो को दूर करता है। यह दोष-मार्जन सस्कार कहलाता है। दूसरा सस्कार वह है, जो दोपो की कुछ भी झलक शेप रह गई हो, उसे दूर कर दोप-रहित पदार्थों के हीन-स्वरूप की पूर्ति करता है । यह हीनाग-पूर्ति सस्कार है। तीसरा संस्कार दोष-रहित पदार्थ मे एक प्रकार की विशेपता (खूवी) उत्पन्न करता है, वह अतिशयाधायक सस्कार कहा जाता है । समस्त सस्कारो का का सस्कारत्व, इन तीन सस्कारो मे समाविष्ट हो जाता है।
उदाहरण के रूप मे, मलिन वस्त्र को ही ले लीजिए। धोवी पहले वस्त्रो को भट्टी पर चढा कर वस्त्रो के मैल को पृथक् करता है। यही पहला दोप-मार्जन सस्कार है । अन्तिम वार जल मे से निकाल कर, धूप मे मुन्वा कर यथा-व्यवस्थित वस्त्रो की तह कर देना, हीनागपूति सम्कार है । अन्त मे सलवटें साफ कर, इस्त्री कर देना-तीसरा अतिशयाघायक मस्कार है।