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कार्यात्सर्ग-सूत्र
एक और भी उदाहरण लीजिए। रंगरेज वस्त्र को पहले पानी मे डुबो कर, मल कर उसके दाग-धब्बे दूर करता है, यही पहला दोपमार्जन सस्कार है । पुन साफ-सुथरे वस्त्र को अभीष्ट रंग से रजित कर देना, यही दूसरा हीनाग-पूर्ति सस्कार है । अन्त मे कलप लगा कर इस्त्री कर देना, तीसरा अतिशयाधायक सस्कार है । इन्ही तीन सस्कारो को शास्त्रीय भाषा मे शोधक, विशेषक, एव भावक सस्कार कहते है |
व्रत-शुद्धि के लिए भी यही तीन सस्कार माने गए है । आलोचना एवं प्रतिक्रमण के द्वारा स्वीकृत व्रत के प्रमाद - जन्य दोषो का मार्जन किया जाता है । कायोत्सर्ग के द्वारा इधर-उधर रही हुई शेष मलिनता भी दूर कर, व्रत को अखण्ड बना कर हीनाग-पूर्ति सस्कार किया जाता है । अन्त मे प्रत्याख्यान के द्वारा आत्म-शक्ति मे अत्यधिक वेग पैदा करके व्रतो मे विशेषता उत्पन्न की जाती है, यह अतिशयाधायक सस्कार है ।
जो वस्तु एक बार मलिन हो जाती है, वह एक बार के प्रयत्न से ही शुद्ध नही हो जाती । उसकी विशुद्धि के लिए बार-बार प्रयत्न करना होता है । जग लगा हुआ शस्त्र, एक बार नही, अनेक बार रगडने, मसलने और सान पर रखने से ही साफ होता है, चमक पाता है ।
पाप-मल से मलिन हुआ सयमी आत्मा भी, इसी प्रकार, एक वार के प्रयत्न से ही शुद्ध नही हो जाता । उसकी शुद्धि के लिए साधक को बार-बार प्रयत्न करना पडता है । एक के बाद एक प्रयत्नो की लम्बी परम्परा के बाद ही आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है, पहले नही । अस्तु सर्वप्रथम आलोचना - सूत्र के द्वारा श्रात्म-विशुद्धि के लिए प्रयत्न किया जाता है, और गमनागमनादि क्रियाओ से होने वाली मलिनता उक्त ईर्या-पथिक प्रतिक्रमण से साफ हो जाती है । परन्तु पाप - मल की बारीक झाँई फिर भी शेष रह जाता है, उसे भी साफ करने के लिए और अत शल्य को बाहर निकाल फेकने के लिए दूसरी बार कायोत्सर्ग के द्वारा शुद्धि करने का पवित्र सकल्प किया जाता है । मन, वचन और शरीर की चचलता हटाकर, हृदय मे वीतराग भगवान की स्तुति का प्रवाह बहा कर, अपने-आपको अशुभ एव चचल व्यापारो से हटाकर, शुभ