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सामायिक में ध्यान
ग्राज के अधिकाश जिज्ञासुग्रो की ओर से यह प्रश्न बराबर सामने आता है कि "हम सामायिक तो करते है, किंतु मन एकाग्र नही होता । और जब मन एकाग्र नही होता तो फिर सामायिक करने का क्या लाभ है
?"
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यह बात वहुत शो मे ठीक भी है कि एकाग्रता के विना सामायिक का वाछित फल और ग्रानन्द प्राप्त नही हो सकता । किन्तु सामायिक कोई जादू तो नही है कि वस, 'करेमि भते' का मंत्र बोला और मन वश में हो गया । मन को वश मे करने के लिए, साधना करनी होती है, त सामायिक मे वह प्रयत्न करना चाहिए, जिससे कि मन एकाग्र हो, समत्व में स्थिर हो ।
समभाव और ध्यान
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सामायिक का मूल अर्थ 'समता भाव' है, समत्त्वयोग की साधना है । और यह भूल नही जाना है कि समत्त्वयोग ही ध्यान साधना का मुख्य श्राधार है । जव मन समत्त्व में स्थिर होगा, तभी वह ध्यान योग का आनन्द प्राप्त कर सकेगा । ग्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
न साम्येन विना ध्यान न ध्यानेन विना च तत् । निष्कम्प जायते तस्माद् द्वयमन्योन्यकारणम् ॥
— योगशास्त्र ४।११४