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सामायिक मे ध्यान
समभाव का अभ्यास किए बिना ध्यान नहीं होता और ध्यान के बिना निश्चल समत्व की प्राप्ति नही होती । इसलिए समभाव और ध्यान का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । दोनो एक-दूसरे के पूरक भी है और घटक भी।
ध्यान की परिभाषा
प्राचीन ग्रन्थो मे समभाव की साधना के निमित्त अनेक उपाय बताये गए है। उन सब मे ध्यान साधना प्रमुख है । अत प्रस्तुत अध्याय मे सामायिक मे ध्यान कैसे किया जाए ? मनोनिग्रह कैसे हो? आदि प्रश्नो के समाधान करने का सक्षिप्त प्रयत्न है। ___मनोवैज्ञानिको का मत है कि अपनी जागृत अवस्था मे हमे विभिन्न प्रकार की वस्तुग्रो का बोध होता रहता है। उनमे से कुछ वस्तुएँ चेतना केन्द्र के अधिक निकट होती है, कुछ उसके आस-पास घूमती है और कुछ उसके किनारे पर घूमती रहती है। जिस वस्तु पर चेतना का प्रकाश केन्द्रित हो जाता है, वह वस्तु ध्यान का विषय (ध्येय) बन जाती है । अत किसी भी वस्तु या विषय पर चेतना के प्रकाश का केन्द्रित हो जाना ध्यान कहा जाता है। इस प्रकार ध्यान का अर्थ हुआ-वस्तु (ध्येय) पर चेतनाप्रकाश का केन्द्रित होना। जैनदृष्टि से इसे ही 'एक पुद्गलनिविष्टदृष्टि' कहा जाता है । सीवी भाषा मे मन का एक विषय पर स्थिर हो जाना, एकाग्र हो जाना ध्यान है।
कुछ विद्वान् ध्यान का अर्थ करते है–'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध' अर्थात् चित्त की वृत्तियो का निरोध हो जाना, ध्यानयोग है। इसका अर्थ है--मन को गतिहीन कर देना, शून्य बना देना । योगदर्शन ने इसी अर्थ मे योग की व्याख्या की है, आजकल भी कुछ साधक व विद्वान् ध्यान के लिए मन को गतिहीन करना, शून्य करना तथा मन को भीतर मे ले जाना आदि शब्दावली का प्रयोग करते है, किंतु मेरा अनुभव है कि साधना की प्रथम अवस्था मे इस प्रकार की शब्दावली मात्र एक उलझाव है। साधना की प्रथम सीढी पर चरण रखने वाला साधक पहले ही क्षण मे उसके शिखर को स्पर्श करने के लिए हाथ बढाए, तो यह साधना की गति तथा प्रगति का सही मार्ग नहीं होगा।
अत. जैन साधना पद्धति सर्वप्रथम मन को गतिशून्य करने की