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सामायिक प्रवचन
अपेक्षा मन की गति को बदलने पर बल देती है । जैनाचार्यो ने योग का अर्थ – “योगो दुश्चित्तवृत्तिनिरोध "" किया है, जो कि "योगश्चित्तवृत्तिनिरोध " का परिष्कृत रूप है ।
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मन जव तक मनरूप मे है, गतिशील रहता है, सर्वथा शून्य नही हो सकता, इस तथ्य को आज मनोविज्ञान भी स्वीकार कर चुका है । अत प्राथमिक अवस्था मे ध्यान अथवा मनोनिग्रह का अर्थ मन की गति को परिवर्तित करना है, चिंतन की दिशा को ऊर्ध्वगामी बनाना है, मन को दुर्वृत्तियो से हटाकर सद्वृत्तियो की ओर उन्मुख करना है, सच्चितन मे मन को जोडना है । सक्ष ेप मे शास्त्र की भाषा मे कहे तो, मन को अशुभ से शुभ की ओर परिवर्तित करना है ।
इस प्रकार चित्त वृत्तियो का परिशोधन उदात्तीकरण एवं चेतना प्रकाश का केन्द्रीकरण - यह सब ध्यान साधना के अन्तर्गत आ सकता है । इस दृष्टि से जप साधना को भी ध्यान कहा जाता है ।
जपसाधना
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता मे कहा है- "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' में यज्ञो मे 'जपयज्ञ' हूँ । जप, मन को एकाग्र करने की एक सरल तथा श्रेष्ठ विधि है । जप की महिमा गाते हुए प्राचार्यो ने कहा है - " जपात् सिद्धिर्जपात्सिद्धिर्जपात्सिद्धिर्न सशय " जप से अवश्य ही सिद्धि प्राप्त होती है । जप से मन मे तन्मयता एव मधुरता का एक ऐसा प्रवाह उमडता है कि साधक उसमे आत्मविभोर होकर डूब जाता है, अपने को विस्मृत कर देता है, और जप्य (ध्येय) मे तदाकार होकर ऐक्यानुभूति करने लगता है । भक्तियोग मे तो जप को श्र ेष्ठतम साधना माना गया है । जप की साधना 'ध्यान योग' की भाँति दुरूह भी नही है, साधना की प्रथम भूमिका मे भी साधक इसके ग्रानन्द की अनुभूति कर सकता है ।
१ उपाध्याय यशोविजयजी कृत योगदर्शन की टीका १।१
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पातंजल योगदर्शन १1१