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________________ चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र २२७ प्रदर्शित होता है। यदि लाक्षणिक भाषा मे कहे, तो इसका अर्थ'सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करे, यह न होकर यह होगा कि सिद्ध प्रभु के आलम्बन से मुझे सिद्धि प्राप्त हो।' अब यह प्रार्थना, भावना मे बदल गई है। ___ जैन-दृष्टि से भावना करना, अपसिद्धान्त नही, किन्तु सुसिद्धान्त है। जैन-धर्म मे भगवान का स्मरण केवल श्रद्धा का बल जागृत करने के लिए ही है, यहाँ लेने-देने के लिए कोई स्थान नही । हम भगवान् को कर्ता नही मानते, केवल अपने जीवन-रथ का सारथी मानते हैं । सारथी मार्ग-दर्शन करता है, युद्ध योद्धा को ही करना होता है। महाभारत के युद्ध मे कृष्ण की स्थिति जानते है आप? क्या प्रतिज्ञा है ? "अर्जुन। मैं केवल तेरा सारथी बनूंगा। शस्त्र नही उठाऊँगा। शस्त्र तुझे ही उठाने होगे। योद्धाओ से तुझे ही लडना होगा। शस्त्र के नाते अपने ही गाण्डीव पर भरोसा रखना होगा ।" यह है कृष्ण की जगत्प्रसिद्ध प्रतिज्ञा | अध्यात्म-रणक्षेत्र के महान् विजयी जैन तीर्थ करो का भी यही आदर्श है। उनका भी कहना है कि "हमने सारथी बनकर तुम्हे मार्ग बतला दिया है । अत हमारा प्रवचन यथासमय तुम्हारे जीवनरथ को हाकने और मार्ग-दर्शन कराने के लिए सदा-सर्वदा तुम्हारे साथ है, किन्तु साधना के शस्त्र तुम्हे ही उठाने होगे, वासनामो से तुम्हे ही लडना होगा, सिद्धि तुमको मिलेगी, अवश्य मिलेगी । किन्तु मिलेगी अपने ही पुरुषार्थ से।" ___ सिद्धि का अर्थ पुरानी परम्परा मुक्ति-मोक्ष करती आ रही है। प्राय प्राचीन और अर्वाचीन सभी टीकाकार इतना ही अर्थ कह कर मौन हो जाते है। परन्तु, क्या सिद्धि का सीधा-सादा मुख्यार्थ उद्देश्य-पूर्ति नहीं हो सकता? मुझे तो यही अर्थ उचित जान पड़ता है। यद्यपि परम्परा से मोक्ष भी उद्देश्य-पूर्ति मे ही सम्मिलित है। किन्तु यहाँ निरतिचार व्रतपालन-रूप उद्देश्य की पूर्ति ही कुछ अधिक सगत जान पड़ती है। उसका हम से निकट सम्बन्ध है। पाठान्तर आचार्य हेमचन्द्र ने 'कित्तिय-वदिय-महिया' मे के 'महिया' पाठ
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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