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________________ २२८ सामायिक-सूत्र के स्थान मे 'मइआ' पाठ का भी उल्लेख किया है। इस दशा में 'मइआ' का अर्थ मेरे द्वारा करना चाहिए। सम्पूर्ण वाक्य का अथ होगा-मेरे द्वारा कीर्तित, वन्दित"मइया इति पाठान्तरम्, तत्र मयका मया।" -योग शास्त्र (३/१२४) स्वोपज्ञ-वृत्ति प्राचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार कीर्तन का अर्थ नाम-ग्रहण है, और वन्दन का अर्थ है स्तुति । कर्म रज और मल प्राचार्य हेमचन्द्र 'विहुयरयमला' पर भी नया प्रकाश डालते है। उक्त पद मे रज और मल दो शब्द है। रज का अर्थ वध्यमान कर्म, वद्ध कर्म, तथा ऐया-पथ कर्म किया है। और मल का अर्थ पूर्व वद्ध कर्म, निकाचित कर्म तथा साम्परायिक कर्म किया है। क्रोध, मान आदि कषायो के विना केवल मन अादि योगत्रय से बंधने वाला कर्म ऐर्यापथ-कर्म होता है। और कपायो के साथ योगत्रय से बधने वाला कर्म साम्परायिक होता है। वद्ध कर्म केवल लगने मात्र होता है. वह दृढ नही होता। और निकाचित कर्म दृढ बधने वाले अवश्य भोगने योग्य कर्म को कहते है। सिद्ध भगवान् दोनों ही प्रकार के रज एव मल से सर्वथा रहित होते है - "रजश्च मलं च रजोमले। विधूते, प्रकम्पिते अनेकार्थत्वादपनीते वा रजोमले यस्ते विधूतरजोमला । बध्यमान च कर्म रजः, पूर्ववद्धं तु मलम् । अथवा वद्ध रजो, निकाचित मलम् । अथवा ऐयां-पथं रजः, साम्परायिक मलमिति ।" -योगशास्त्र, (३/१२४) स्वोपन-वृत्ति विधि चतुर्विंशतिस्तव, ऐर्यापथ-सूत्र के विवेचन मे निर्दिष्ट जिन-मुद्रा अथवा योग-मुद्रा से पढना चाहिए। अस्त-व्यस्त दशा मे पढने से स्तुति का पूर्ण रस नही मिलता।
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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