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सामायिक सूत्र
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नही होता । प्रभु के चरणो मे अपनी साधना के प्रति सर्वथा उत्तरदायित्व पूर्ण रहने की माँग कितनी अधिक सुन्दर है । कितनी अधिक भाव-भरी है ।
कुछ लोग भोग - पिपासा से ग्रन्धे होकर गलत ढंग से प्रार्थना करते भी देखे गए हैं । कोई स्त्री माँगता है, तो कोई धन, कोई पुत्र माँगता है, तो कोई प्रतिष्ठा । अधिक क्या, कितने ही लोग तो अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने और उनका सहार करने के लिए प्रभु के नाम की माला फेरते है । इस कुचक्र मे साधारण जनता ही नही, ग्रच्छेसे-अच्छे व्यक्ति भी फसे हुए हैं। परन्तु, जैन-धर्म के विशुद्ध दृष्टिकोण से यह सब उन वीतराग महापुरुषो का भयङ्कर अपमान है । निवृत्ति मार्ग के प्रवर्तक तीर्थ करो से इस प्रकार वासनामयी प्रार्थनाएँ करना वज्र मूर्खता का अभिशाप है । जो जैसा हो, उससे वैसी ही प्रार्थना करनी चाहिए । विरागी मुनियो से काम शास्त्र के उपदेश की और वेश्या से धर्मोपदेश की प्रार्थना करने वाले व्यक्ति के सम्बन्ध मे हर कोई कह सकता है कि उसका दिल और दिमाग ठिकाने पर नही है । अतएव प्रस्तुत पाठ मे ऐसे स्वार्थी भक्तो के लिए खूब ही ध्यान देने योग्य बात कही गई है । यहाँ और कुछ ससारी पदार्थ न माग कर तीर्थंकरो के व्यक्तित्व के सर्वथा अनुरूप सिद्धत्व की, बोधि की और समाधि की प्रार्थना की गई है । जैन दर्शन की भावनारूप सुन्दर प्रार्थना का आदर्श यही है कि हम इधर-उधर न भटक कर अपने आत्मनिर्माण के लिए ही मगल कामना करे - 'समाहिवरमुत्तम दितु ।'
सिद्धः दाता नहीं, श्रालम्बन
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व एक अन्तिम शब्द 'सिद्धा सिद्धि मम 'दिसतु' रह गया है, जिस पर विचार करना आवश्यक है । कुछ सज्जन कहते है कि भगवान् तो वीतराग हैं, कर्त्ता नही हैं । उनके श्री चरणो मे यह व्यर्थ की प्रार्थना क्यों और कैसी ? उत्तर मे कहना है कि वस्तुत प्रभु वीतरागी हैं, कुछ नही करते है, परन्तु उनका अवलम्ब लेकर भक्त तो सव- कुछ कर सकता है । सिद्धि, प्रभु नही देते, भक्त स्वयं ग्रहण करता है । परन्तु, भक्ति की भाषा मे इस प्रकार प्रभु चरणो मे प्रार्थना करना, भक्त का कर्तव्य है । ऐसा करने से अहता का नाश होता है, हृदय मे श्रद्धा का वल जागृत होता है, और भगवान् के प्रति अपूर्व सम्मान