________________
चतुर्विशतिस्तव-सूत्र
२२५
आरोग्य से है, परन्तु इसका यह अर्थ नही कि साधक को द्रव्य आरोग्य से कोई वास्ता ही नही रखना चाहिए । भाव-आरोग्य की साधना के लिए द्रव्य-आरोग्य भी अपेक्षित है। यदि द्रव्य आरोग्य हमारी साधना मे सहकारी हो सकता है, तो वह भी अपेक्षित ही है, त्याज्य नहीं।
'समाहिवरमुत्तम' मे समाधि शब्द का अर्थ बहुत गहरा है । यह दार्शनिक जगत् का महामान्य शब्द है । वाचक यशोविजय जी ने कहा है-जव कि ध्याता, ध्यान एव ध्येय की द्वैत-स्थिति हट कर केवल स्वस्वरूप-मात्र का निर्भास होता है, वह ध्यान समाधि हैस्वरूपमात्र-निर्मासं, समाधियानमेव हि।
-द्वात्रिंशिका २४/२७ उपाध्याय जी की उडान कितनी ऊँची है | समाघि का कितना ऊँचा आदर्श उपस्थित किया है | योगसूत्रकार पतञ्जलि भी वाचक जी के ही पथ पर हैं।
भगवान् महावीर साधक-जीवन के बडे ही मर्मज्ञ पारखी हैं । समाधि का वर्णन करते हुए आपने समाधि के दश प्रकार बतलाए है-पाच महाव्रत और पाच समिति"दसविहा समाही पण्णत्ता तजहा, पाणाइवायाओ वेरमण .. "
-स्थानाग सूत्र, १०/३/११ पाच महाव्रत और पाच समिति का मानव जीवन के उत्थान मे कितना महत्त्व है, यह पूछने की चीज नही ? समस्त जैन-वाड्मय इन्ही के गुण-गान से भरा पडा है ! सच्ची शान्ति इन्ही के द्वारा मिलती है ।
समाधि का सामान्य अर्थ है—'चित्त की एकाग्रता ।' जब साधक का अन्तर्मन, इधर-उधर के विक्षेपो से हटकर, अपनी स्वीकृत साधना के प्रति एक-रूप हो जाए, किसी प्रकार की वासना का लेश भी न रहे, तव वह समाधि-पथ पर पहुँचता है। यह समाधि, मनुष्य का अभ्युदय करती है, अन्तरात्मा को पवित्र वनाती है, एव सुख-दुख तथा हर्ष शोक आदि की हर हालत मे शान्त एव स्थिर रखती है । इस उच्च समाधि-दशा पर पहुँचने के बाद आत्मा का पतन