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सामायिक प्रवचन
श्रावद्ध नही हो सकती, कर्म-जन्य सुख-दुख नही भोग सकती। बिना कारण के कभी भी कार्य नही होता यह न्यायशास्त्र का ध्र व सिद्धान्त है। जब मोक्ष मे ससार के कारण कर्म ही नहीं रहे, तो फिर ससार मे पुनरागमनरूप उसका कार्य कैस हो सकता है ?
प्रात्मा पचभूतात्मक नहीं है
'अात्मा पॉच भूतो की बनी हुई है और एक दिन वह नष्ट हो जाएगी'—यह देव समाज आदि नास्तिको का कथन भी सर्वथा असत्य है । भौतिक पदार्थो से आत्मा की विभिन्नता स्वय सिद्ध है। किसी भी भौतिक पदार्थ मे चेतना का अस्तित्व नही पाया जाता। और इधर प्रत्येक प्रात्मा मे थोडी या बहुत चेतना अवश्य होती है । अत लक्षण-भेद से पदार्थ-भेद का सिद्धान्त सर्वमान्य होने के कारण जड प्रकृति से चैतन्य प्रात्मा का पृथक्त्व युक्तिसगत है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश--इन पाँच जड भूतो के सम्मिश्रण से चैतन्य आत्मा कैसे उत्पन्न हो सकती है ? जड के सयोग से तो जड की ही उत्पत्ति हो सकती है, चैतन्य की नहीं। कारण के अनुरूप ही तो कार्य होता है। और उत्पन्न भी वही चीज होती है, जो पहले न हो । किन्तु, अात्मा सदा से है और सदा रहेगी। जव एक शरीर क्षीण हो जाता है और तज्जन्म-सम्बन्धी कर्म भोग लिया जाता है, तब आत्मा नवीन कर्मानुसार दूसरा शरीर धारण कर लेती है। गरीर-परिवर्तन का यह अर्थ नही कि शरीर के साथ आत्मा भी नष्ट हो जाती है। अमूर्त आकाश के समान अमूर्त प्रात्मा भी न कभी वनती है, न विगडती है। वह अनादि है और अनन्त है, फलत. अखण्ड है, अच्छेद्य है, अभेद्य है।
आत्मा अमूर्त-अरूपी है
प्रात्मा अरूपी है, उसका कोई रूप-रग नही । आत्मा मे स्पर्श रस, गन्ध आदि किसी भी तरह नही हो सकते क्योकि वे सब जड पूदगल-प्रकृति के धर्म है, आत्मा के नही।