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चैतन्य
सकल्पकर्त्ता के रूप मे निरन्तर एक ही प्रकार का सकल्प है कि “मैं ही सकल्प करनेवाला हूँ, मैं ही लिखनेवाला हूँ और मैं ही पूर्ण करूँगा ।" यदि आत्मा उत्तरोत्तर अलग-अलग है, तो सकल्प आदि मे विभिन्नता क्यो नही ? दूसरी बात यह है कि आत्मा को निरन्वय क्षणिक मानने से कर्म और कर्म फल का एकाधिकरण रूप सम्बन्ध भी अच्छी तरह नही घट सकता । एक आदमी चोरी करता है और उसे दण्ड मिलता है । परन्तु, बौद्ध के विचार से आत्मा बदल गयी । अत चोरी की किसी ने और दण्ड मिला किसी दूसरे को । भला, यह भी कोई न्याय है ? चोर करनेवाली आत्मा का कृत-कर्म निष्फल गया और उधर चोरी न करनेवाली दूसरी आत्मा को बिना कर्म के व्यर्थ ही दण्ड भोगना पडा ।
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श्रात्मा सर्वज्ञ और मुक्त हो सकती है
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" श्रात्मा कभी सर्वज्ञ नही हो सकती, मोक्ष नही पा सकती", यह आर्य समाज का कथन भी उचित नही । हमे अल्पज्ञ ही रहना है, ससार मे ही भटकना है, तो फिर भला यम, नियम एव तपश्चरण आदि की साधना का क्या अर्थ ? धर्म साधना आत्मा के सद्गुणो का विकास करने के लिए ही तो है । और, जब गुणो के विकसित होते - होते आत्मा पूर्ण विकास के पद पर पहुँच जाती है, तो वह सर्वज्ञ हो जाती है, अन्त मे वह सब कर्म बन्धनो को काटकर मोक्ष पद प्राप्त कर लेती है - सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाती है । मोक्ष प्राप्त करने के वाद, फिर कभी भी उसे ससार मे भटकना नही पडता । जिस प्रकार जला हुग्रा बीज फिर कभी उत्पन्न नही होता, उसी प्रकार तपश्चररण श्रादि की आध्यात्मिक अग्नि से जला हुना कर्म - बीज भी फिर कभी जन्म-मरण का विष - श्रकुर उत्पन्न नही कर सकता ।
जहा दड्ढा बीयारण रण जायति पुरणकुरा । कम्मबीएस दड्ढेसु न जायति भवकुरा ॥
- दशा श्रुतस्कन्ध ५।१५
जिस प्रकार दूध मे से निकालकर अलग किया हुआ मक्खन, पुन अपने स्वरूप को तज कर दूध-रूप हो जाए, यह असम्भव है, ठीक उसी प्रकार कर्म से अलग होकर सर्वथा शुद्ध हुई आत्मा, पुन