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सामायिक द्रव्य और भाव
साधन है । यदि द्रव्य के साथ भाव का ठीक-ठीक सामजस्य न भी बैठ सके, तो भी कोई आपत्ति नही । अभ्यास चालू रखना चाहिए । शुद्ध करने वाले किसी दिन शुद्ध भी करने के योग्य हो जायेगे । परन्तु, जो बिलकुल ही नही करने वाले है, वे क्यो कर ग्रागे बढ सकेगे ? उन्हे तो कोरा ही रहना पडेगा न ? जो अस्पष्ट बोलते है, वे बालक एक दिन स्पष्ट भी बोल सकेंगे, पर जन्म के मूक क्या करेगे ?
सामायिक शिक्षा व्रत है
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भगवान् महावीर का प्रादर्श तो 'कडेमारणे कडे' का है । जो मनुष्य साधना के क्षेत्र मे चल पडा है, भले वह थोडा ही चला हो, परन्तु चलने वाला यात्री ही समझा जाता है। जो यात्री हजार मील लंबी यात्रा करने को चला हो, किन्तु अभी गाव के बाहर ही पहुँचा हो, फिर भी उसकी यात्रा का मार्ग तो कम हुआ ? इसी प्रकार पूर्ण सामायिक करने की वृत्ति से यदि थोडा-सा भी प्रयत्न किया जाए, तब भी वह सामायिक के छोटे-से-छोट अश को अवश्य प्राप्त कर लेता है । ग्राज थोडा तो कल और अधिक । वू द-बू द से सागर भरता है !
सामायिक शिक्षा व्रत है । आचार्य माणिक्यशेखरसूरी ने कहा हैशिक्षा नाम पुन पुनरभ्यास ।
- ग्राव० निर्यु ० भा० ३ पृ० १८ १ धर्माचरण के पुन पुन अभ्यास को शिक्षा कहा जाता है । उक्त कथन से सिद्ध हो जाता है कि सामायिक व्रत एक बार ही पूर्णतया अपनाया नही जा सकता । सामायिक की पूर्णता के लिए नित्य प्रति दिन का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास की शक्ति महान् है | बालक प्रारम्भ मे ही वर्णमाला के अक्षरो पर अधिकार नही कर सकता । वह पहले, अष्टावक्र की भाति, टेढे-मेढे, मोटे-पतले अक्षर बनाता है । सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वथा हताश हो जाता है । परन्तु ज्यो ही वह ग्रागे वढता है, अभ्यास मे प्रगति करता है तो बहुत सुन्दर लेखक बन जाता है । लक्ष्य-वेध करने वाला पहले १ जैन ग्रन्थमाला गोपीपुरा, सूरत से प्रकाशित, विक्रमाब्द २००५ ।