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कायोत्सर्ग-सूत्र
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जब तक साधक के हृदय मे, उल्लिखित किसी भी शल्य का सकल्प बना रहेगा, तब तक कोई भी नियम तथा व्रत विशुद्ध नही हो सकता । मायावी का व्रत असत्य मिश्रित होता है । भोगासक्त का व्रत वीतराग-भावना से शून्य, सराग होता है । मिथ्या दृष्टि का व्रत केवल द्रव्यलिङ्गस्वरूप हैं । सम्यक्त्व के विना घोर-से-घोर क्रिया - काड भी सर्वथा निष्फल है, बल्कि कर्म-बन्ध का कारण है ।
प्रस्तुत उत्तरीकरण पाठ के सम्बन्ध मे अन्तिम सार - रूपेण इतना ही कहना है कि व्रत एव ग्रात्मा की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त ग्रावश्यक है । प्रायश्चित्त भाव -शुद्धि के विना नही हो सकता, भाव-शुद्धि के लिए शल्य का त्याग जरूरी है । शल्य का त्याग और पाप कर्मो का नाश कायोत्सर्ग से ही हो सकता है, कायोत्सर्ग करना परमावश्यक है । कायोत्सर्ग सयम मे होने वाली भूलो का एक विशिष्ट प्रायश्चित्त ही तो है ।
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