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कायोत्सर्ग-सूत्र
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सहसा गँवा बैठता है । परन्तु, जब वह शुद्ध हृदय से प्रायश्चित्त कर लेता है, अपने अपराध का उचित दण्ड ले लेता है, तो जनता का हृदय भी बदल जाता है, और वह उसे प्रेम तथा गौरव की दृष्टि से देखने लगती है । इसलिए कहा गया है
प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत्, तच्चित्त - ग्राहक कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् । - प्रायश्चित्त समुच्चयवृत्ति
प्रायश्चित्त का एक अर्थ और भी है, जो वैदिक साहित्य के विद्वानों द्वारा किया जा रहा है । उनका कहना है कि प्रायश्चित्त शब्द के 'प्राय' और 'चित्त' ये दो विभाग है । 'प्राय' विभाग प्रयाग-भाव का सूचक है । आत्मा की भूतपूर्व शुद्ध अवस्था ही 'प्राय ' है । अस्तु, इस गत-भाव का पुन चयन -संग्रह ही 'चित्त' है । प्रायोभाव का चयन ही प्रायश्चित्त है । दूषरणो के कारण मलिन श्रात्मा शुद्ध होकर पुन स्वरूप मे उपस्थित हो, यह प्रायश्चित्त का भावार्थ है । यह ग्रर्थ भी प्रस्तुत प्रकरण मे युक्ति-संगत है । कायोत्सर्ग - रूप प्रायश्चित्त के द्वारा आत्मा चचलता से हटकर पुन अपने स्थिर रूप में, आध्यात्मिक दृष्टि से ब्रतो की दृढता मे स्थित हो जाता है ।
व्रती कौन ?
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जैन धर्म की विचारधारा के अनुसार अहिंसा, सत्य आदि व्रतो के लेने मात्र से कोई सच्चा ब्रती नहीं हो सकता । सुव्रती होने के लिए सबसे पहली और मुख्य शर्त यह है कि उसे शल्यरहित होना चाहिए । सच्चा ब्रती एव त्यागी वहीं है, जो सर्वथा निश्छल होकर, अभिमान दभ एवं भोगासक्ति से परे होकर अपने स्वीकृत चारित्र मे लगे दोषो को स्वीकार करता है, उनका यथाविधि प्रतिक्रमण करता है, आलोचना करता है और कायोत्सर्ग आदि के द्वारा शुद्धि करने के लिए सदा तैयार रहता है। जहाँ दभ है, व्रत- शुद्धि के प्रति उपेक्षा है, वहाँ शल्य है । और, जहा शल्य है, वहाँ व्रतो की साधना कहा ? इसी आदर्श को ध्यान मे रखकर प्राचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थ- सूत्र ७ /१३ मे कहते हैं— 'नि शल्यो व्रती' - जो शल्य से मुक्त है, वही व्रती है