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चैतन्य
अस्तु, साख्य-मत मे आत्मा अकर्ता है। अर्थात् वह किसी भी प्रकार के कर्म का कर्ता नही है। करने वाली प्रकृति है। प्रकृति के दृश्य आत्मा देखती है, अत वह केवल द्रष्टा है। साख्य-सिद्धान्त का यही सूत्र है।
प्रकृते क्रियमाणानि, गुण कर्माणि सर्वश । अहकार-विमूढात्मा, कर्ताहमिति मन्यते । -गीता, ३।२७
वेदान्तदर्शन
वेदात्त भी आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानता है। परन्तु, उसके मत मे ब्रह्मरूप आत्मा एक ही है, साख्य के समान अनेक नही । प्रत्यक्ष मे जो नानात्व दिखलाई देता है, वह माया-जन्य है, आत्मा का अपना नही। परब्रह्म के साथ ज्योही माया का स्पर्श हुआ, वह एक से अनेक हो गया, ससार बन गया। पहले, ऐसा कुछ नही था। वेदान्त जहाँ अात्मा को एक मानता है, वहाँ सर्वव्यापी भी मानता है। अखिल ब्रह्माण्ड मे एक ही आत्मा का पसारा है, आत्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नही । वेदान्त के आदर्श-सूत्र है
सर्व खल्विद ब्रह्म। –छादोग्यउपनिषद् ३।१४।१ एकमेवाद्वितीयम् । -छा० उ०६।२।१
वैशेषिकदर्शन
वैशेषिक आत्मा तो अनेक मानते है, पर मानते है सर्वव्यापी। उनका कहना है कि "आत्मा एकान्त नित्य है। वह किसी भी परिवर्तन के चक्र मे नही आती। जो सुख-दुख आदि के रूप में परिवर्तन नजर आता है, वह आत्मा के गुणो मे है, स्वय आत्मा मे नही । ज्ञान आदि आत्मा के गुण अवश्य है, पर, वे आत्मा को तग करने वाले हैं, ससार मे फँसाने वाले है। जब तक ये नष्ट नही हो जाते, तब तक आत्मा का मोक्ष नही हो सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वरूपत आत्मा 'जड' है। आत्मा से भिन्न पदार्थ के रूप मे माने जाने वाले ज्ञान-गुण के सम्बन्ध से आत्मा मे चेतना है, स्वत नही।"
बौद्धदर्शन
बौद्ध आत्मा को एकान्त क्षणिक मानते है। उनका अभिप्राय