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चैतन्य
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प्रस्तुत प्रसग चैतन्य अर्थात् आत्मा के सम्बन्ध मे ही कुछ कहने का है, अत पाठको की जानकारी के लिए इसी दिशा मे कुछ पक्तियाँ लिखी जा रही है । दार्शनिक क्षेत्र मे आत्मा का विषय बहुत ही गहन एव जटिल माना जाता है, अत एक स्वतन्त्र पुस्तक के द्वारा ही इस पर विस्तार के साथ प्रकाश डाला जा सकता है। परन्तु, समयाभाव के कारण, अधिक विस्तार मे न जाकर, सक्षेप मे, मात्र स्वरूप-परिचय कराना ही यहाँ हमारा लक्ष्य है।
आत्मा क्या है, इस सम्बन्ध मे भिन्न-भिन्न दर्शनो की भिन्न-भिन्न धारणाएं है। किसी भी वस्तु को नाममात्र से मान लेना कि वह है, यह एक चीज है, और वह किस प्रकार से है, किस रूप से है, यह दूसरी चीज है। अत आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने वाले दर्शनो का भी, आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध मे परस्पर मतैक्य नहीं है। कोई कुछ कहता है और कोई कुछ । सव के सव परस्पर विरोधी लक्ष्यो की ओर दौड रहे है ।
सांख्यदर्शन
सांस्य दर्शन यात्मा को कूटस्थ-नित्य मानता है। वह कहता है कि "अात्मा सदाकाल कूटस्थ-एकरूप रहता है। उसमे किसी भी प्रकार का परिवर्तन-हेरफेर नहीं होता। प्रत्यक्षत जो ये सुख, दुख आदि के परिवर्तन यात्मा में दिखलाई देते है, सब प्रकृति के धर्म है, यात्मा के नहीं।