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सामायिक-सूत्र
और ज्ञानाभ्यास करने वालो को यथायोग्य सहायता प्रदान करना--यह सब ज्ञानाचार है।
(२) दर्शनाचार-दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व है। अत सम्यक्त्व का स्वय पालन करना, दूसरो से पालन करवाना, तथा सम्यक्त्व से भ्रष्ट होने वाले साधको को हेतु एव तर्क आदि से प्रेमपूर्वक समझा कर पुन सम्यक्त्व मे दृढ करना- यह सब दर्शनाचार है।
(३) चारित्राचार-अहिंसा आदि शुद्ध चारित्र का स्वय पालन करना, दूसरो से पालन करवाना, तथा पालन करने वालो का अनुमोदन करना, पापाचार का परित्याग करके सदाचार पर आरूढ होने का नाम चारित्राचार है ।
(४) तप-आचार-बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनो ही प्रकार का तप स्वय करना, दूसरो से कराना, करने वालो का अनुमोदन करना । यह सब तप साधना, तप प्राचार है। बाह्य तप अनशन-उपवास आदि है, और आभ्यन्तर तप स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि है।
(५) वीर्याचार-धर्मानुष्ठान मे-प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय आदि मे अपनो शक्ति का यथावसर उचित प्रयोग करना । कदापि पालस्य आदि के वश धर्माराधन मे अन्तराय नही डालना। अपनी मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक शक्ति को दुराचरण से हटाकर सदाचरण मे लगाना-वीर्याचार है।
पाँच समिति
समिति का शाब्दिक अर्थ होता है-सम्=सम रूप से+इति= जाना अर्थात् प्रवृत्ति करना । फलितार्थ यह है कि चलने मे, बोलने मे, अन्नपान आदि की गवेषणा मे, किसी वस्तु को लेने या रखने मे, मल-मूत्र आदि को परठने मे, सम्यक् रूप से मर्यादा रखना अर्थात् गमनादि किसी भी क्रिया मे विवेक-युक्त सीमित प्रवृत्ति करना, समिति है। समिति के पाँच भेद हैं
(१) ईर्या-समिति-ईर्या का अर्थ गमन होता है, अत किसी भी जीव को पीडा न पहुँचे-इस प्रकार सावधानता पूर्वक गमनागमनादि क्रिया करना, ईर्या समिति है।