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गुरु-गुण-स्मरण-सूत्र
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प्रथम अहिंसा महाव्रत है । प्राणातिपात का अर्थ-प्राणो का अतिपात -नाश है। प्राण दश हैं—पाच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, श्वासोच्छवास और आयुष्य । विरमण का, अर्थ त्याग करना है । अत किसी भी जीव के प्रारणो का नाश करना हिंसा है। हिंसा का त्याग करना अहिंसा है।
(२) सर्व-मृषावाद-विरमरण-सब प्रकार से मृषावाद-झूठ बोलने का त्याग करना, सत्य महाव्रत है । मृषा का अर्थ झूठ, वाद का अर्थ भाषण, विरमरण का अर्थ त्याग करना है।
(३) सर्व-अदत्तादान-विरमण-सब प्रकार से अदत्त चोरी का त्याग करना, अस्तेय महाव्रत है। अदत्त का अर्थ बिना दी हुई वस्तु है, अादान का अर्थ ग्रहण करना है।
(४) सर्व-मथुन-विरमरण-सब प्रकार से मैथुन-काम वासनाका त्याग करना, ब्रह्मचर्य महावत है। मन, वचन और शरीर से किसी भी प्रकार की काम-सम्बन्धी चेष्टा करना, साधु के लिए सर्वथा निषिद्ध है। ___ (५) सर्व-परिग्रह-विरमरण-सब प्रकार से परिग्रह-धन-धान्य आदि का त्याग करना, अपरिग्रह महाव्रत है । अधिक क्या, कौडी मात्र धन भी अपने पास न रखना, न दूसरो के पास रखवाना और न रखने वालो का अनुमोदन करना । सयम की साधना के उपयोग मे आने वाले मर्यादित वस्त्र-पात्र आदि पर भी मूर्छा-भाव न रखना। ___पाँचो ही महाव्रतो मे मन, वचन और शरीर-करना, कराना और अनुमोदन करना—सब मिलकर नव कोटि से क्रमश हिंसा आदि का त्याग किया जाता है। महाव्रत का अर्थ है- महान् व्रत । महाव्रती साधु ही हो सकता है, गृहस्थ नही । गृहस्थ-धर्म मे 'सर्व' के स्थान पर 'स्थूल' शब्द का प्रयोग किया जाता है । जिसका अर्थ यह है कि गृहस्थ मर्यादित रूप से स्थूल हिंसा, स्थूल असत्य आदि का त्याग करता है। अत गृहस्थ के ये पाँच अरण -व्रत कहलाते है- अणु का अर्थ छोटा होता है।
पाँच प्राचार
(१) ज्ञानाचार-ज्ञानाभ्यास स्वय करना और दूसरो को कराना, ज्ञान के साधन शास्त्र आदि स्वय लिखना तथा ज्ञान-भडारो की रक्षा करना