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________________ २७४ सामायिक-मूत्र __ इन सब प्रश्नो का उत्तर जैनागमो का मर्मी पाठक यही देता है कि जनता को प्रबोध देने और न देने से भगवान् को कुछ भी व्यक्तिगत हानि-लाभ नही है। भगवान् किसी स्वार्थ को लक्ष्य मे रखकर कुछ भी नहीं करते । न उनको पथ चलाने का मोह है, न शिष्यो की टोली जमा करने का स्वार्थ है। न उन्हे पूजा-प्रतिष्ठा चाहिए और न मान-सम्मान | वे तो पूर्ण वीतराग पुरुष है। अत उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति केवल करुणाभाव से होती है। जन-कल्याण की श्रेष्ठ भावना ही धर्म-प्रचार के मूल में निहित है, और कुछ नही। तीर्थ कर अनन्त-करुणा के सागर हैं। फलत किसी भी जीव को मोह-माया मे आकुल देखना, उनके लिए करुणा की वस्तु है। यह करुणा-भावना ही उनके महान् प्रवृत्तिशील जीवन की आधारशिला है। जैन-सस्कृति का गौरव प्रत्येक वात मे केवल अपना हानि-लाभ देखने मे ही नही है, प्रत्युत जनता का हानिलाभ देखने में भी है। केवल ज्ञान पाने के बाद तीस वर्ष तक भगवान् महावीर निष्काम जन-सेवा करते रहे। तीस वर्ष के धर्म-प्रचार से एव जन-कल्याण से भगवान् को कुछ भी व्यक्तिगत लाभ न हुआ। और न उनको इसकी अपेक्षा ही थी । उनका अपना आध्यात्मिक जीवन वन चुका था और कुछ साधना शेष नही रही थी, फिर भी विश्व-करुणा की भावना से जीवन के अन्तिम क्षण तक जनता को सन्मार्ग का उपदेश देते रहे। प्राचार्य शीला ने सूत्रकृताङ्ग सूत्र पर की अपनी टीका मे इसी बात को ध्यान मे रखकर कहा है___ "धर्ममुक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थम्, न पूजा-सत्कारार्थम्" -सूत्र कृताङ्ग टीका १/६/४ । केवल टीका मे ही नही, जैन-धर्म के मूल प्रागम-साहित्य मे भी यही भाव बताया गया है"सव्वजगजीव-रक्खण-दयठ्याए पावयण भगवया सुकहिय" -प्रश्नव्याकरण-सूत्र २/१ __सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिणाण सूत्रकार ने 'जिणाण' आदि विशेषणो के वाद 'सव्वन्नूण सव्वदरिसीण' के विशेपण वडे ही गम्भीर अनुभव के आधार पर रखे है। जैन-धर्म मे सर्वत्रता के लिए शर्त है, राग और द्वप गम्भीर है,
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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