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प्रणिपात-सूत्र
२७५ का क्षय हो जाना । राग-द्वेप का सम्पूर्ण क्षय किए बिना, अर्थात् उत्कृष्ट वीतराग भाव सम्पादन किए बिना सर्वज्ञता सभव नही । सर्वज्ञता प्राप्त किए बिना पूर्ण प्राप्त पुरुष नहीं हो सकता । पूर्ण प्राप्त पुरुष हुए विना त्रिलोक-पूज्यता नही हो सकती, तीर्थकर पद की प्राप्ति नही हो सकती। उक्त, 'जिणाण' पद ध्वनित करता है कि जैन-धर्म मे वही आत्मा सुदेव है, परमात्मा है, ईश्वर है, परमेश्वर है, परब्रह्म है, सच्चिदानन्द है, जिसने चतुर्गति-रूप ससार-वन मे परिभ्रमरण कराने वाले राग-द्वेष आदि अन्तरग शत्रुयो को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया है। जिसमे राग-द्वेप आदि विकारो का थोडा भी अश हो, वह साधक भले ही हो सकता है, परन्तु देवाधिदेव परमात्मा नही हो सकता। प्राचार्य हेमचन्द्र कहते हैं
सर्वज्ञो जितरागादि-दोषस्त्रलोक्य-पूजित । यथास्थितार्थ-वादो च, देवोऽहन परमेश्वर ।।
-योगशास्त्र २/४
पाठ भेद
आवश्यक सूत्र की प्राचीन प्रतियो मे तथा हरिभद्र और हेमचन्द्र आदि प्राचार्यों के प्राचीन ग्रन्थो मे 'नमोत्थुरण' के पाठ मे 'दीवो, ताण , सरण , गई, पइछा' पाठ नही मिलता । बहुत
आधुनिक प्रतियो मे ही यह देखने मे आया है और वह भी कुछ गलत ढग से। गलत यो कि 'नमोत्थुरण' के सव पद षष्ठी विभक्ति वाले है, जव कि यह बीच मे प्रथमा विभक्ति के रूप मे है। प्रथमा विभक्ति का सम्बन्ध, 'नमोत्थुरग' मे के नमस्कार के साथ किसी प्रकार भी व्याकरणसम्मत नही हो सकता। अत हमने मूल-सूत्र मे इस अश को स्थान नही दिया। यदि उक्त अश को 'नमोत्थरण' मे वोलना ही अभीष्ट हो, तो इसे 'दीवताण-सरणगइ-पइट्ठाण' के रूप मे समस्त पष्ठी विभक्ति लगा कर बोलना चाहिए। प्रस्तुत प्रश का अर्थ है-"तीर्थकर भगवान् ससार समुद्र मे द्वीप-टापू, त्राण-रक्षक, शरण, गति एव प्रतिष्ठा रूप हैं।"
'नमोत्थुरग' की पाठ विधि 'नमोत्थुण' किस पद्धति से पढना चाहिए, इस सम्बन्ध में