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सामायिक प्रवचन
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जीवन को अहिंसा, सत्य आदि की मधुर भावनाओं से भरे, हृदय मे आध्यात्मिक बल का सचार करे, तो वह प्रार्थना व उपासना वस्तुत सही हो सकती है । जैन धर्म की सामायिक मे किसी लम्बीचौड़ी प्रार्थना के बिना ही, जीवन को स्वय अपने हाथो पवित्र बनाने का सुन्दर विधान प्रापके समक्ष है, जरा तुलना कीजिए ।
श्रार्यसमाजी प्रार्थना
अब रहा श्रार्यसमाज । उसकी सन्ध्या भी प्राय सनातनधर्म के अनुसार ही है । वही जल की साक्षी, वही ग्रघमर्षण मे सृष्टि का उत्पत्ति - क्रम, वही प्राणायाम, वह स्तुति, वही प्रार्थना । हाँ, इतना अन्तर अवश्य हो गया है कि यहा पुराने वैदिक देवताओ के स्थान मे सर्वत्र ईश्वर-परमात्मा विराजमान हो गया है । एक विशेषता मार्जन मन्त्रो की है । किन्तु मन्त्र पढकर शिर, नेत्र, कण्ठ, हृदय, नाभि, पैर आदि को पवित्र करने मे क्या गुप्त रहस्य है, करने वाले ही बता सकते है । इन्द्रियो की शुद्धि तो सदाचार के ग्रहण और दुराचार के त्याग मे है, जिसके लिए इस सध्या मे भी कोई खाम सकल्प एव प्रवृत्ति दृष्टि गोचर नही होती ।
मनसा परिक्रमा का प्रकरण सन्ध्या मे क्यो रक्खा है ? यह बहुत कुछ विचार करने के बाद भी समझ मे नही आता । मनसा परिक्रमा में एक मन्त्र है, जिसका आखिरी भाग है
"योस्मान् द्वेष्टि य वय द्विष्मस्त वो जम्मे दध्म
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इसका अर्थ है, जो हम से द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते है, उसको हे प्रभु | हम तुम्हारे जबड़े मे रखते हैं ।
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पाठक जानते हैं, जबडे मे रखने का क्या फल होता है ? नाश यह मन्त्र छह वार प्रात और छह बार सायकाल की सन्ध्या मे पढा जाता है | विचार करने की बात है कि यह सन्ध्या है या वही दुनियावी तूतू-मैंमै । सन्ध्या में बैठकर भी वही द्वेष वही घृणा, वही नफरत, वही नष्ट करने-कराने की भावना । मैं पूछता हू, फिर सासारिक क्रियाओ और धार्मिक क्रियाओ मे अन्तर ही क्या
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अर्थवेद का ० ३ सू० २७ म० १६
सातवलेकर द्वारा सम्पादित वि० स० १९६६ मे मुद्रित संस्करण ।