________________
वैदिक सन्ध्या और सामायिक
१०७
रहा ? मारा-मारी के लिए तो ससार की कटे ही बहुत है । सन्ध्या मे तो हमे उदार, सहिष्ण, दयालु, स्नेही मनोवृत्ति का धनी बनना चाहिए। तभी हम परमात्मा से सन्धि एव मेल साध सकते है । इस कूड े - कर्कट को लेकर तो परमात्मा से सन्धि-मेल तो दूर, उस को मुख दिखलाने के लायक भी हम नही रह सकते । क्या ही अच्छा होता, यदि इस मन्त्र में अपराधी के अपराध को क्षमा करने की, वैर-विरोध के स्थान मे प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और स्नेह की प्रार्थना की होती ।
उपर्युक्त प्राशय का ही एक मन्त्र यजुर्वेद का है, जो सन्ध्या मे तो नही पढा जाता, परन्तु अन्य प्रार्थना के क्षेत्र मे वह भी विशेष स्थान पाये हुए हैं । वह मन्त्र भी शत्रुओ से सत्रस्त किसी विक्षुब्ध, हृदय की वाणी है ।
"योऽस्मभ्यमरातीयाद्यरच
नो द्विषते जन. । निन्द्याद् योऽमस्मान् धिप्साच्च सर्वं भस्मसा कुरु ॥"
- जो हमसे शत्रुता करते है, जो हमसे द्वेष रखते है, जो हमारी निन्दा करते है, जो हमे धोखा देते है, हे भगवन् । हे ईश्वर । तुम उन सव दुष्टो को भस्म कर डालो ।
यह सब उद्धरण लिखने का अभिप्राय किसी विपरीत भावना को लिए हुए नही है । और मैं यह भी नही मानता कि वेदो मे इसी प्रकार की द्वेषमूलक भावनाए भरी है । ऋग्वेद आदि का स्वाध्याय मैंने किया है। उनमे जीवन की उदात्त मधुर एव निर्मल भावनाओ का प्रवाह है । अच्छा होता प्रार्थना मे उन उदात्त भावनाओ को स्थान दिया जाता । यहाँ पर तो केवल प्रसग वश, सामायिक के साथ तुलना करने के लिए ही इस ओर लक्ष्य दिया है । मैं विद्वानो से विनम्र निवेदन करूँगा कि वह इस ओर ध्यान दे तथा उपर्युक्त मन्त्रो के स्थान मे उदात्तता एव प्रेम-भाव से भरे मत्रो की योजना करे ।
पाठक वैदिक धर्म की दोनो ही शाखाओ की सन्ध्या का वर्णन पढ चुके है। स्वय मूल ग्रन्थो को देखकर अपने-आपको और अधिक विश्वस्त कर सकते है । और इधर सामायिक आपके समक्ष है ही । अत आप तुलना कर सकते हैं, किसमे क्या विशेषता है ?
१ यजुर्वेद ११८०
सातवलेकर द्वारा संपादित वि० स० १६६८ मे मुद्रित सस्करण |