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________________ वैदिक सन्ध्या और सामायिक १०५ "प्रोम् सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेम्य. पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद् अह्ना यद् रात्र्या पापमकार्ष मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु, यत् किञ्चिद् दुरितं मयि इवमहमापोऽमृतयोनी सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ।" --सूर्य नारायण, यक्षपति और देवताओ से मेरी प्रार्थना है कि यक्ष-विषयक तथा क्रोध से किये हुए पापो से मेरी रक्षा करें। दिन या रात्रि मे मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न से जो पाप हुए हो, उन पापो को मैं अमृतयोनि सूर्य मे होम करता हूँ। इसलिए वह उन पापो को नष्ट करे। प्रार्थना : पलायन नहीं, प्रक्षालन है प्रार्थना करना बुरा नही है। अपने इष्टदेव के चरणो मे अपने-आप को समर्पण करना और अपने अपराधो के प्रति क्षमायाचना करना, मानव-हृदय की श्रद्धा और भावुकता से भरी हुई कल्पना है । परन्तु, सब-कुछ देवतानो पर ही छोड बैठना, अपने ऊपर कुछ भी उत्तरदायित्व न रखना, अपने जीवन के अभ्युदय एव निश्रेयस् के लिए खुद कुछ न करके दिन-रात देवताओ के आगे नत-मस्तक होकर गिडगिडाते ही रहना, उत्थान का मार्ग नही है। इस प्रकार मानव-हृदय दुर्बल, साहस-हीन एव कर्तव्य के प्रति पराड मुख हो जाता है । अपनी ओर से जो दोष, पाप अथवा दुराचार आदि हुए हो, उन के लिए केवल क्षमा-प्रार्थना कर लेना और दड से बचे रहने के लिए गिडगिडा लेना, मानव-जाति के लिए बडी ही घातक विचारधारा है । सिद्धान्त की बात तो यह है कि सर्वप्रथम मनुष्य कोई अपराध ही न करे। और, यदि कभी कुछ अपराध हो जाय, तो उसके परिणाम को भोगने के लिए सहर्ष प्रस्तुत रहे। यह क्या बात है कि बढ-बढ कर पाप करना और दड भोगने के समय देवताग्रो से क्षमा की प्रार्थना करना, दड से बच कर भाग जाना । यह भीरुता है, वीरता नही । और, भीरुता कभी भी धर्म नही हो सकती। प्रार्थना का उद्देश्य पाप से पलायन करना नही, किन्तु अतीत के पाप का प्रक्षालन करना और भविष्य मे उसका परिवर्जन करना है । क्षमा प्रार्थना के साथ-साथ यदि अपने
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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