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सामायिक-सूत्र : हिन्दी पद्यानुवाद
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चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र
[हरिगीतिका की ध्वनि ] ससार मे उद्द्योत-कर श्रीधर्म-तीर्थकर महा; चौबीस अर्हन् केवली बन्दू अखिल पापापहा ! श्री आदि नरपु गव ऋषभ जिनवर अजित इन्द्रियजयी ; सभव तथा अभिनन्द जी शोभा अमित महिमामयी। श्री सुमति, पद्म, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि जिनराज का ; शीतल तथा श्रेयास का तप तेज है दिनराज का! श्री वासुपूज्य, विमल, अनन्त, अनन्तज्ञानी धर्म जी; श्री शान्ति, कुन्थु तथैव अर, मल्ली, नशाए कर्म जी ! भगवान् मुनिसुव्रत, गुणी नमि, नेमि, पार्श्व जिनेश को; वर वन्दना है भक्ति से श्री वीर धर्म-दिनेश को! हो कर्ममल-विरहित जरा-मरणादि सब क्षय कर दिए ; चौबीस तीर्थ कर जिनेन्द्र कृपालु हो गुण-स्तुति किए ! कीर्तित, महित, वन्दित सदा ही सिद्ध जो हैं लोक में; आरोग्य, बोधि, समाधि, उत्तम दे, न आएं शोक मे ! राकेश से निर्मल अधिक उज्ज्वल अधिक दिवसेश से; व्यामोह कुछ भी है नही, गभीर सिन्धु जलेश से ! ससार की मधु-वासना अन्तर्ह दय मे कुछ नही , श्री सिद्ध तुम–सी सिद्धि मुझको भी मिले आशा यही !
सामायिक प्रतिज्ञा-सूत्र [ घनाक्षरी की ध्वनि ]
भगवन् । सामायिक करता हू समभाव,
पापरूप व्यापारो की कल्पना हटाता हूँ !