________________
३०४
६ कायोत्सर्ग-सूत्र
[छप्पय को ध्वनि ]
पापमग्न निज आत्म-तत्त्व को विमल बनाने, प्रायश्चित्त ग्रहरण कर अन्तर ज्ञान ज्योति जगाने ।
ध्यान लगाने, द्वन्द्व मिटाने !
पूर्ण शुद्धि के हेतु समुज्ज्वल शल्य - रहित हो पाप कर्म का राग-द्वेष-सकल्प तज, कर समता - रस पान, स्थिर हो कायोत्सर्ग का करू पवित्र विधान !
७
आगार-सूत्र
[ रूपमाला की ध्वनि ]
नाथ | पामर जीव है यह, भ्रान्ति का भडार, अस्तु, कायोत्सर्ग मे कुछ, प्राप्त है आगार ! श्वास ऊँचा, श्वास नीचा, छीक अथवा काश, जृम्भरणा, उद्गार, वातोत्सर्ग, भ्रम मतिनाश | पित्तमूर्च्छा, और अरण भी अग का सचार; श्लेष्म का और दृष्टि का यदि सूक्ष्म हो प्रविचार ! अन्य भी कारण तथाविध है अनेक प्रकार, चचलाकृति देह जिनसे शीघ्र हो सविकार । भाव कायोत्सर्ग मम, हो, पर अखड श्रभेद्य, भावना - पथ है सुरक्षित देह ही है भेद्य 1 जाव कायोत्सर्ग, पढ नवकार ना लू पार, ताव स्थान, सुमौन से स्थित ध्यान की झनकार 1
ܦ
देह का सब भान भूलूं, साधना इक तार, आत्म-जीवन से हटाऊँ, पाप का व्यापार !
परिशिष्ट