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सामायिक-सूत्र
पानी में डूब मरते हैं, येन केन प्रकारेण आत्म-हत्या कर लेते है। अप्रतिष्ठा बडी भयकर चीज है। महान् तेजस्वी एव प्रात्मशोधक इने-गिने साधक ही इस खदक को लाघ पाते है। मनुष्य अन्दर के पापो को झाड-वुहार कर मुख द्वार पर लाता है, बाहर फेकना चाहता है, परन्तु ज्योही अप्रतिष्ठा की ओर दृष्टि जाती है, त्यो ही चुपचाप उस कूडे को फिर अन्दर की ओर ही डाल लेता है, बाहर नहीं फेक पाता। गर्दा दुर्बल साधक के बस की बात नही है। इसके लिए अन्तरग की विशाल शक्ति चाहिए। फिर भी, एक बात है, ज्यो ही वह शक्ति आती है, पापो का गदा मल धुलकर साफ हो जाता है। गर्दा करने के बाद पापो को सदा के लिए विदाई ले लेनी होती है। गर्दा का उद्देश्य भविष्य में पापो का न करना है।
-'पावारण कम्माण अकरणयाए' भगवान् महावीर के सयम-मार्ग मे जीवन को छपाए रखने जैसी किसी बात को स्थान ही नही है। यहाँ तो जो है, वह स्पष्ट है, सब के सामने है, भीतर और बाहर एक है, दो नही । यदि कही वस्त्र और शरीर पर गदगी लग जाए, तो क्या उसे छ पाकर रखना चाहिए ? सव के सामने धोने मे लज्जा यानी चाहिए ? नही, गन्दगी आखिर गन्दगी है, वह छपाकर रखने के लिए नहीं है। वह तो झटपट धोकर साफ करने के लिए है। यह तो जनता के लिए स्वच्छ और पवित्र रहने का एक जीवित-जाग्रत निर्देश है, इसमे लज्जा किस बात की ? गर्दा भी आत्मा पर लगे दोषो को साफ करने के लिए है। उसके लिए लज्जा और सकोच का क्या प्रतिवन्ध ? प्रत्युत हृदय मे स्वाभिमान की यह ज्वाला प्रदीप्त रहनी चाहिए कि "हम अपनी गन्दगी को धोकर साफ करते है, छुपाकर नहीं रखते।" जहाँ छु पाव है, वही जीवन का नाश है।
दूषित आत्मा का त्याग
सामायिक प्रतिज्ञा-सूत्र का अन्तिम वाक्य 'अप्पारणं वोसिरामि' है। इसका अर्थ सक्षेप मे-आत्मा को, अपने-आपको त्यागना है,