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प्रतिज्ञा-सूत्र
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नही सुलझा सकता। न वह भौतिक जगत मे क्राति कर सकता है और न आध्यात्मिक जगत् मे ही। किसी भी वस्तु का विवेक-शून्य अतिरेक जीवन के लिए घातक ही होता है।
गर्दा : गुरु की साक्षी
आत्म-दर्शन के जिज्ञासु साधक को निन्दा के साथ गर्दा का भी उपयोग करना चाहिए। इसीलिए सामायिक-सूत्र मे 'निन्दामि' के पश्चात् ‘गरिहामि' का भी प्रयोग किया है। जैन-दर्शन की ओर से साधना-क्षेत्र मे आत्म-शोधन के लिए गर्दा की महाति-महान् अनुपम भेट है। साधारण लोग निन्दा और गर्दा को एक ही समझते है। परन्तु, जैन-साहित्य मे दोनो का अन्तर पूर्ण रूप से स्पष्ट है। जव साधक एकान्त मे बैठकर दूसरो को सुनाए बिना अपने पापो की आलोचना करता है, पश्चात्ताप करता है, वह निन्दा है, और जब वह गुरुदेव की साक्षी से अथवा किसी दूसरे की साक्षी से प्रकट रूप मे अपने पापाचरणो को धिक्कारता है, मन, वचन, और शरीर तीनो को पश्चात्ताप की धधकती प्राग मे झोक देता है, प्रतिष्ठा के झूठे अभिमान को त्याग कर पूर्ण सरल-भाव से जनता के समक्ष अपने हृदय की गाठो को खोल कर रख छोडता है, उसे गर्दा कहते है । प्रतिक्रमण-सूत्र के टीकाकार आचार्य नमि इसी भाव को लक्ष्य मे रख कर कहते हैं
निन्दामि जुगुप्सामोत्यर्थ । गर्हामीति च स एवार्थ , किन्तु आत्मसाक्षिको निन्दा, गुरुसासिकी गर्हेति, 'परसाक्षिको गह' ति वचनात् । ।
--प्रतिक्रमणसूत्र पदविवृत्ति , सामायिक-मूत्र गर्दा जीवन को पवित्र बनाने की एक बहुत ऊँची अनमोल साधना है। निन्दा की अपेक्षा गहीं के लिए अधिक प्रात्म-वल अपेक्षित है। मनुष्य अपने-आपको स्वय धिक्कार सकता है, परन्तु दूसरो के सामने अपने को प्राचरण-हीन, दोषी और पापी बताना वडा ही कठिन कार्य है। ससार में प्रतिष्ठा का भूत बहुत वडा है। हजारो यादमी प्रति वर्ष अपने गुप्त दुराचार के प्रकट होने के कारण होने वाली अप्रतिष्ठा से घबरा कर जहर खा लेते है,