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सामायिक-सूत्र
मार्ग पर चलता है । वह किसी भी क्षेत्र मे एकान्त वाद को स्थान नहीं देता। जैन-धर्म मे जीवन का प्रत्येक क्षेत्र अनेकान्तवाद के उज्ज्वल आलोक से आलोकित रहता है। यही कारण है कि वह प्रस्तुत योगत्रय मे भी किसी एक योग का पक्ष न लेकर तीनो की समष्टि का पक्ष करता है । वह कहता है -"आध्यात्मिक जीवन की साधना न अकेले भक्तियोग पर निर्भर है, न अकेले ज्ञानयोग पर, और न कर्मयोग पर ही । साधना की गाडी तीनो के समन्वय से ही चलती है। भक्तियोग से हृदय मे श्रद्धा का बल पैदा करो । ज्ञानयोग से सत्यासत्य के विवेक का प्रकाश लो। और कर्मयोग से शुष्क एव मिथ्या कर्मकाण्ड की दलदल मे न फंसकर अहिंसा, सत्य आदि के आचरण का सत्पथ ग्रहण करो | तीनो का यथायोग्य उचित मात्रा मे समन्वय ही साधना को सबल तथा सुदृढ वना सकता है।"
भक्ति का सम्बन्ध व्यवहारत. हृदय से है, अत वह श्रद्धारूप है, विश्वासरूप है, और भावनारूप है। जब साधक के हृदय से श्रद्धा का उन्मुक्त वेगशाली प्रवाह वहता है, तो साधना का कण-कण प्रभु के प्रेमरस से परिप्लुत हो जाता है। भक्त-साधक ज्यो-ज्यो प्रभु का स्मरण करता है, प्रभु का ध्यान करता है, प्रभु की स्तुति करता है, त्यो त्यो श्रद्धा का बल अधिकाधिक पुष्ट होता है, आचरण का उत्साह जागृत हो जाता है । साधना के क्षेत्र मे भक्त, भगवान् और भक्ति की त्रिपुटी का बहुत बड़ा महत्त्व है।
ज्ञान योग, विवेक-बुद्धि को प्रकाशित करने वाला प्रकाश है। साधक कितना ही बडा भक्त हो, भावुक हो, यदि वह ज्ञान नही रखता है, उचित-अनुचित का भान नहीं रखता है, तो कुछ भी नही है । आज जो भक्ति के नाम पर हजारो मिथ्या विश्वास फैले हुए है, वे सब ज्ञानयोग के अभाव मे ही बद्धमूल हुए हैं । भक्त के क्या कर्तव्य हैं, भक्ति का वास्तविक क्या स्वरूप है, अाराध्य देव भगवान् कैसा होना चाहिए, इन सव प्रश्नो का उचित एव उपयुक्त उत्तर ज्ञानयोग के द्वारा ही मिल सकता है। साधक के लिए बन्ध के कारणो का तथा मोक्ष और मोक्ष के कारणो का ज्ञान भी अतीव आवश्यक है। और यह ज्ञान भी जान-योग की साधना के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है ।
कर्मयोग का अर्थ सदाचार है। सदाचार के अभाव मे मनुष्य का