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प्रणिपात - सूत्र
व्यर्थ ही तप-जप की साधनाओ मे लगते है और कष्ट झेलते है । भ्रान्ति का नाश तप-जप आदि से नही होता है, वह होता है ज्ञान से । ज्ञान से बढ कर जीवन की पवित्रता का कोई दूसरा साधन ही नही है
'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
- गीता ४।३८
अपने-आप को शुद्ध आत्मा समझो, परब्रह्म समझो, वस, वेडा पार है | और क्या चाहिए । जीवन मे करना क्या है, केवल जानना है | ज्यो ही सत्य के दर्शन हुए, आत्मा बन्धनो से स्वतन्त्र हुआ । "
वेदान्त की इस धारणा के पीछे भी कर्म की और भक्ति की उपेक्षा रही हुई है । जीवन-निर्माण के लिए एकान्त ज्ञानयोग के पास कोई रचनात्मक कार्यक्रम नही है । वेदान्त बौद्धिक व्यायाम पर आवश्यकता से अधिक भार देता है । मिसरी के लिए जहाँ उसका ज्ञान आवश्यक है, वहाँ उसका मुँह मे डाला जाना भी तो आवश्यक है | 'ज्ञानं भार क्रिया बिना' के सिद्धान्त को वेदान्त भूल जाता है ।
कुछ सप्रदाय ऐसे भी है, जो केवल कर्मकाण्ड के ही पुजारी है । भक्ति और ज्ञान का मूल्य, इनके यहाँ कुछ भी नही है । मात्र कर्म करना, यज्ञ करना, तप करना, पञ्चाग्नि आदि तप साधना के द्वारा शरीर को नष्ट-भ्रष्ट कर देना ही, इनका विशिष्ट मार्ग है । इस मार्ग मे न हृदय की पूछ है और न मस्तिष्क की । शुष्क शारीरिक as क्रियाकाण्ड ही, इनके दृष्टिकोण मे सर्वेसर्वा है । प्राचीनकाल के मीमासक और आजकल के हठयोगी साधु, इस विचार धारा के प्रमुख समर्थक है। ये लोग भूल जाते है कि जब तक मनुष्य के हृदय मे भक्ति और श्रद्धा की भावना न हो, ज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश न हो, उचित और अनुचित का विवेक न हो, तब तक केवल कर्म काण्ड क्या अच्छा परिणाम ला सकता है ? विना ग्राँखो के दौडने वाला ग्रन्धा अपने लक्ष्य पर कैसे पहुँच सकेगा ? जरा समझने की बात है । जिस शरीर से दिल और दिमाग निकाल दिए जाए, वहाँ क्या शेष रहेगा ? विना ज्ञान के कर्म अन्धा है, और बिना भक्ति के कर्म निर्जीव एव निष्प्राण ।
अतएव जैन-धर्म विभिन्न मत-भेदो पर न चलकर समन्वय के