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________________ २५० सामायिक सूत्र विश्व की कल्याण भावना का मंगल स्वर झकृत रहना चाहिए । जहाँ यह स्वर मन्द पडा कि साधक पतनोन्मुख हो जाएगा, जीवन के महान आदर्श भुला बैठेगा, ससार की अँधेरी गलियो में भटकने लगेगा | भक्ति, ज्ञान एव कर्मयोग का समन्वय मानव हृदय मे अध्यात्म साधना को बद्धसूल करने के लिए उसे सुदृढ एव सबल बनाने के लिए भारतवर्ष की दार्शनिक चिन्तनधारा ने तीन मार्ग बतलाए है - भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग | वैदिक धर्म की शाखाओ मे इनके सम्बन्ध मे काफी मतभेद उपलब्ध है । वैदिक विचारधारा के कितने ही सम्प्रदाय ऐसे है, जो भक्ति को ही सर्वोत्तम मानते है । वे कहते हैं- "मनुष्य एक बहुत पामर प्राणी है । वह ज्ञान और कर्म की क्या आराधना कर सकता है ? उसे तो अपने-आप को प्रभु के चरणो मे सर्वतोभावेन अर्पण कर देना चाहिए । दयालु प्रभु ही, उसकी ससार - सागर मे फसी हुई नैया को पार कर सकते है, और कोई नही । ज्ञान और कर्म भी प्रभु की कृपा से ही मिल सकते है । स्वय मनुष्य चाहे कि मै कुछ करू, सर्वथा असम्भव है ।" भक्ति-योग की इस विचार धारा मे कर्तव्य के प्रति उपेक्षा का भाव छुपा है । मनुष्य की महत्ता के और आचरण की पवित्रता के दर्शन, इन विचारो मे नही होते । ग्रपने पुत्र नारायण का नाम लेने मात्र से अजामिल को स्वर्ग मिल जाता है, अपने तोते को पढाने के समय लिए जाने वाले राम नाम से वेश्या का उद्धार हो जाता है, और न मालूम कौन क्या-क्या हो जाता है। वैदिक सप्रदाय के इस भक्ति-साहित्य ने ग्राचरण का मूल्य विल्कुल कम कर दिया है। नाम लो, केवल नाम और कुछ नही । केवल नाम लेने मात्र से जहाँ वेडा पार होता हो, वहाँ व्यर्थ ही कोई क्यो ज्ञान और ग्राचरण के कठोर क्षेत्र मे उतरेगा ? वैदिक-धर्म के कुछ सप्रदाय केवल ज्ञान-योग की ही पूजा करने वाले है | वेदान्त इस विचारधारा का प्रमुख पक्षपाती है । वह कहता हे — 'ससार और ससार के दुख मात्र भ्रान्ति है, वस्तुत नही । लोग
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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