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प्रणिपात-सूत्र
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सास्कृतिक स्तर नीचा हो जाता है। वह आहार, निद्रा, भय और मैथुन-जैसी पाशविक भोग-बुद्धि मे ही फँसा रहता है। आशा और तृष्णा के चाकचिक्य से चुंधिया जाने वाला साधक, जीवन मे न अपना हित कर सकता है और न दूसरो का । भोग-बुद्धि और कर्तव्यबुद्धि का आपस मे भयकर विरोध है । अत दुराचार का परिहार और सदाचार का स्वीकार ही आध्यात्मिक जीवन का मूल-मत्र है। और इस मत्र की शिक्षा के लिए कर्म-योग की साधना अपेक्षित है।
श्रद्धा, विवेक एवं सदाचार
जैन-दर्शन की अपनी मूल परिभाषा मे उक्त तीनो को सम्यग-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यक् चारित्र के नाम से कहा गया है । प्राचार्य उमास्वाति ने कहा है'सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्राणि मोक्ष-मार्ग ।'
-तत्त्वार्थ सूत्र १११ अर्थात् सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र ही मोक्षमार्ग है। 'मोक्ष-मार्ग' यह जो एक वचनान्त प्रयोग है, वह यही ध्वनित करता है कि उक्त तीनो मिल कर ही मोक्ष का मार्ग हैं, कोईसा एक या दो नही । अन्यथा 'मार्ग' न कह कर 'मार्गाः' कहा जाता, बहुवचनान्त शब्द का प्रयोग किया जाता। ___यह ठीक है कि अपने-अपने स्थान पर तीनो ही प्रधान है, कोई एक मुख्य और गौरण नही । परन्तु, मानस-शास्त्र की दृष्टि से एव आगमो के अनुशीलन से यह तो कहना ही होगा कि आध्यात्मिक साधना की यात्रा मे भक्ति का स्थान कुछ पहले है। यही से श्रद्धा की विमल गगा आगे के दोनो योग क्षेत्रो को प्लावित, पल्लवित, पुष्पित एव फलित करती है । भक्ति-शून्य नीरस हृदय में ज्ञान और कर्म के कल्पवृक्ष कभी नही पनप सकते । यही कारण है कि सामायिक-सूत्र मे सर्वप्रथम नवकार मन्त्र का उल्लेख आया है, उसके बाद सम्यक्त्वसूत्र, गुरु-गुण स्मरण-सूत्र और गुरु-वन्दन-सूत्र का पाठ है। भक्ति की वेगवती धारा यही तक समाप्त नही हुई। आगे चलकर एक वार ध्यान मे तो दूसरी बार प्रकट रूप से चतुर्विशति-स्तव-सूत्र यानी लोगस्स के पढने का मगल विधान है। 'लोगस्स' भक्तियोग