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सामायिक-प्रवचन
निश्चयदृष्टि से सामायिक का स्वरूप
बात यह है सामायिक मे पापमय व्यापारो का परित्याग कर समभाव अर्थात् शुद्ध मार्ग अपनाया जाता है। समभाव को ही सामायिक कहते है । समभाव का अर्थ है बाह्य विषय-भोग की चचलता से हटकर स्वभाव मे-यात्म-स्वरूप मे स्थिर होना, लीन होना । अस्तु, आत्मा का काषायिक विकारो से अलग किया हुआ अपना शुद्ध स्वरूप ही सामायिक है। और उस शुद्ध आत्म-स्वरूप को पा लेना ही सामायिक का अर्थ-फल है । यह निश्चयदृष्टि का कथन है, इसके अनुसार जबतक साधक स्व-स्वरूप मे ध्यान-मग्न रहता है, उपशम-जल से राग-द्वेष के मल को धोता है, पर-परिणति को हटाकर आत्म-परिणति मे रमण करता है, तब तक ही सामायिक है। और ज्यो ही सकल्पो-विकल्पो के कारण चचलता होती है, बाह्य क्रोध, मान, माया, लोभ की ओर परिणति होती है, त्यो ही साधक सामायिक से शून्य हो जाता है । आत्म-स्वरूप की परिणति हुए बिना सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि सब-की-सब बाह्य धर्म साधनाएँ मात्र पुण्यात्रव-रूप है, मोक्ष की साधक-सवर रूप नही।
इसी भाव को भगवती-सूत्र मे भगवान् महावीर ने तु गिया नगरी के श्रावको के प्रश्न के उत्तर मे स्पप्ट किया है। वहा वर्णन है कि "यात्म-परिणति-प्रात्म-स्वरूप की उपलब्धि के बिना, तप, सयम आदि की साधना से मात्र पुण्य-प्रकृति का बध होता है, फलस्वरूप देव-भव की प्राप्ति होती है, मोक्ष की नही ।" अत साधको का कर्तव्य है कि निश्चय सामायिक की प्राप्ति का प्रयत्न करे। केवल सामायिक के वाह्य स्वरूप से चिपटे रहना और उसे ही सब-कुछ समझ लेना उचित नही।
व्यावहारिक भूमिका : क्रमिक विकास
निश्चय दृष्टि के सम्बन्ध मे एक बडा ही विकट प्रश्न है । वह यह कि इस प्रकार शुद्ध प्रात्म-परिणतिरूप सामायिक तो कभी होती नही । मन वडा चचल है, वह अपनी उछल-कूद भला कभी छोड पाता है ? कभी नही । अव रहे केवल वचन और शरीर, सो उनको