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आगार-२
र-सूत्र
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ने अच्छा प्रकाश डाला है । कुछ कारण तो ऐसे हैं, जो अधिकारीभेद से मानवी दुर्बलताश्री को लक्ष्य मे रखकर माने गए है । और कुछ उत्कृष्ट दयाभाव के कारण है । अतएव किसी आकस्मिक विपत्ति मे किसी की सहायता के लिए कायोत्सर्ग खोलना पडे, तो उसका आगार रखा जाता है । जैन-धर्म शुष्क क्रिया-काण्डो मे पडकर जड नही बनता है । वह ध्यान - जैसे आवश्यक - विधान मे भी ग्राकस्मिक सहायता देने की छूट रख रहा है । ग्राज के जड क्रियाकाण्डी इस चोर लक्ष्य देने का कष्ट उठाएँ, तो जन-मानस से बहुत सारी गलतफहमियाँ दूर हो सकती है ।
हाँ, तो टीकाकारो ने यादि शब्द से ग्रग्नि का उपद्रव, डाकू अथवा राजा आदि का महाभय, सिंह अथवा सर्प आदि क्रूर प्राणियों का उपद्रव, तथा पचेन्द्रिय जीवो का छेदन भेदन इत्यादि अपवादो का ग्रहण किया है । ग्रग्नि आदि के उपद्रव का ग्रहण इसलिए है कि नभव है, साधक मूल मे दुर्बल हो, वह उस समय तो अहम् मे अडा रहे, किन्तु बाद मे भावो की मलिनता के कारण पतित हो जाए । दूसरी बात यह भी है कि साधक दृढ भी हो, जीवन की अन्तिम घडियो तक विशुद्ध परिणामी भी रहे, किन्तु लोकापवाद तो भयकर है । व्यर्थ की घृष्टता के लिए लोग, जैनधर्म की निन्दा कर सकते हैं । और फिर साधना का मिथ्या प्राग्रह रखकर जीवन को यो ही व्यर्थ नष्ट कर देने से लाभ भी क्या है ? पचेन्द्रिय जीवो का छेदन-भेदन ग्रागार - स्वरूप इसलिए रखा गया है कि यदि अपने समक्ष किसी जीव की हत्या होती हो, तो चुपचाप न देखता रहे । शीघ्र ही ध्यान खोल कर उस हत्या को बन्द कराने का यत्न करना चाहिए । अहिंसा से बढकर कोई साधना नही हो सकती । सपदि किसी को काट ले, तो वहाँ भी सहायता के लिए ध्यान खोला जा सकता है । इसी भाव को लक्ष्य मे रखकर आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति मे लिखते है -
" मार्जारमूषिकादे पुरतो गमने ऽग्रत सरतोऽपि न भङ्ग । सर्पदष्टे श्रात्मनि वा साध्यादौ सहसा उच्चारयतो न भङ्ग ।
-योग० (३ / १२४) स्वोपज्ञ वृत्ति 'अभग्गो' और 'अविराहियो' के संस्कृत-रूप क्रमश 'अभग्न' एव