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सामायिक सूत्र
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कर, मौन रह कर, धर्म-ध्यान मे चित्त की एकाग्रता करके अपने शरीर को पाप-व्यापारो से अलग करता हूँ ।
विवेचन
कायोत्सर्ग का अर्थ है, शरीर की सब प्रवृत्तियो को रोक कर पूर्णतया निश्चल एव निस्पन्द रहना । साधक जीवन के लिए यह निवृत्ति का मार्ग श्रतीव श्रावश्यक है । इसके द्वारा मन, वचन एव शरीर मे दृढता का भाव पैदा होता है, जीवन ममता के क्षेत्र से बाहर होता है, सब ओर आत्म-ज्योति का प्रकाश फैल जाता है, और आत्मा बाह्य जगत् से सम्बन्ध हटाकर, शरीर की ओर से भी पराड मुख होकर अपने वास्तविक मूल स्वरूप के केन्द्र मे अवस्थित हो जाता है ।
कायोत्सर्ग मे आगार
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परन्तु, एक बात है, जिस पर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है । साधक कितना ही क्यो न दृढ एव साहसी हो, परन्तु कुछ शरीर के व्यापार ऐसे हैं, जो वराबर होते रहते हैं, उनको किसी भी प्रकार से वन्द नही किया जा सकता । यदि हठात् बन्द करने का प्रयत्न किया जाए, तो लाभ के बदले हानि की ही सम्भावना रहती है । अत कायोत्सर्ग से पहले यदि उन व्यापारो के सम्बन्ध मे छट न रखी जाए, तो फिर कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा का भग होता है । एक ओर तो प्रतिज्ञा है कि शरीर के व्यापारो का त्याग करता हूँ, और उधर श्वास यादि के व्यापार चालू रहते है, ग्रत यह प्रतिज्ञा का भग नही तो और क्या है ? इसी सूक्ष्म बात को लक्ष्य मे रखकर सूत्रकार ने प्रस्तुत ग्रागार-सूत्र का निर्माण किया है । अव पहले से ही छूट रख लेने के कारण प्रतिज्ञा भग का दोप नही होता । कितनी सूक्ष्म सूझ है । सत्य के प्रति कितनी अधिक जागरूकता है ।
'एवमाइए हि आगारेहि' - उक्त पद के द्वारा यह विधान है कि श्वास यादि के सिवा यदि कोई और भी विशेष कारण उपस्थित हो तो कायोत्सर्ग वीच मे ही, समय पूर्ण किए बिना ही समाप्त किया जा सकता है । बाद मे उचित स्थान पर पुन उसको पूर्ण कर लेना चाहिए | वीच मे समाप्त करने के कारणो पर प्राचीन टीकाकारो