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सामायिक-प्रवचन
--जिस प्रकार चन्दन अपने काटनेवाले कुल्हाडे को भी सुगन्ध अर्पण करता है, उसी प्रकार विरोधी के प्रति भी जो समभाव की सुगन्ध अर्पण करने रूप महापुरुषो की सामायिक है, वह मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट अग है, ऐसा सर्वज प्रभु ने कहा है।
सामायिक एक पाप-रहित साधना है। इस साधना मे जरा-सा भी पाप का अश नहीं होता। पाप क्यो नही होता? इसका उत्तर यह है कि सामायिक के काल में चित्तवृत्ति शात रहती है, अत नवीन कर्मो का वन्ध नही होता। सामायिक करते समय किसी का भी अनिष्ट-चिन्तन नही किया जाता, प्रत्युत सब जीवो के श्रेय के लिए विश्वकल्याण की भावना भावित की जाती है, फलत आत्मस्वभाव मे रमण करते-करते साधक अध्यात्म-विकास की उच्च श्रेणियो पर चढता हुआ आत्म-निरीक्षण करने लग जाता है, तथा अशुद्ध व्यवहार, अशुद्ध उच्चार, अशुद्ध विचार के प्रति पश्चात्ताप करता है, उनका त्याग करता है, अट्ठारह पापो से अलग होकर
आत्म-जागृति के क्षेत्र में पवित्र ध्यान के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है। उक्त वर्णन से सिद्ध हो जाता है कि सामायिक कितनी पाप-रहित पवित्र क्रिया है । अतएव प्राचार्य हरिभद्र ने अप्टक प्रकरण में कहा है
निरवद्यमिद जय-मेकान्तेनैव तत्त्वत ।
कुशलाशयरूपत्वात्सर्वयोग-विशुद्धित ॥२६।२ -सामायिक कुशल-शुद्ध आशयरूप है, इसमे मन, वचन और शरीर-रूप सव योगो की विशुद्धि हो जाती है, अत परमार्थ दृष्टि से सामायिक एकान्त निरवद्य अर्थात् पापरहित है।
प्राचार्य हरिभद्र ने सामायिक के फल का निर्देश करते हुए अप्टक प्रकरण मे पुन कहा है कि सामायिक की निर्मल साधना से केवल ज्ञान प्राप्त होता है
मामायिक-विद्वान्मा, सर्वथा घातिकर्मण ।
क्षयात्कैवलमाप्नोति, लोकालोकप्रकाशकम् ॥ ३०॥१॥ मामायिक मे विशुद्ध हुया प्रात्मा ज्ञानावरण आदि