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सामायिक का महत्त्व
घातिकर्मों का सर्वथा अर्थात् पूर्णरूप से नाश कर लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है ।
दिवसे दिवसे लक्ख, देइ सुवण्णस्स खडिय एगो, एगो पुण सामाइय, करेइ न पहुप्पए तस्स ।
- एक आदमी प्रतिदिन लाख स्वर्ण मुद्राओ का दान करता है और दूसरा आदमी मात्र दो घडी की सामायिक करता है, तो वह स्वर्ण मुद्राओ का दान करनेवाला व्यक्ति, सामायिक करनेवाले की समानता प्राप्त नही कर सकता ।
तिव्वतव तवमाणे, ज नवि निट्टवइ जम्मकोडीहि । त समभाविप्रचित्तो, खवेइ कम्म खणद्वेण ॥
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- करोडो जन्म तक निरन्तर उग्र तपश्चरण करने वाला साधक जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता, उनको समभावपूर्वक सामायिक करने वाला साधक मात्र ग्राधे ही क्षरण मे नष्ट कर डालता है ।
जे केवि गया मोक्ख, जेवि य गच्छति जे गमिस्सति । सामाइय, - पभावेण
सव्वे
व्व ॥
- जो भी साधक प्रतीत काल से मोक्ष गए हैं, वर्तमान मे जा रहे है, और भविष्य मे जायँगे, यह सब सामायिक का ही प्रभाव है ।
कि तिव्वेण तवेरण, किं च जवेण किं चरित्तरेण । समयाइ विण मुक्खो, न हु हूओ कहवि न हु होइ ॥
- चाहे कोई कितना ही तीव्र तप तपे, जप जपे अथवा मुनि वेष धारण कर स्थूल क्रियाकाण्ड - रूप चरित्र पाले, परन्तु समताभाव-रूप सामायिक के बिना न कभी किसी को अतीत में मोक्ष हुई है और न भविष्य मे कभी किसी को होगी ।
सामायिक समता का क्षीर समुद्र है, जो इसमे स्नान कर लेता है, वह साधारण श्रावक भी साधु के समान हो जाता है | श्रावक साधु के समान हो जाता है, यह कोई अतिशयोक्ति नही है, कारण कि साधु मे जो क्षमा, वैराग्य वृत्ति, उदासीनता, स्त्री, पुत्र, धन आदि की ममता