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________________ ममस्कार-सूत्र १३७ सम्बन्ध वैसा ही पवित्र एव गुणात्मक है जैसा कि पिता और पुत्र का होता है, गुरु और शिष्य का होता है । उपासक और उपास्य दोनो के बीच मे भक्ति और प्रेम का साम्राज्य है । आदर्श रूप मे पवित्र सस्कार ग्रहण करने की भावना से ही उपासक अपने अभीष्ट उपास्य के अभिमुख होता है। इसमे विवशता या लाचारी-जैसा भाव आस-पास कही भी नही है। प्रमोद भावना शास्त्रीय परिभाषा मे नमस्कार एक प्रमोद-भावना है । अपने से अधिक सद्गुरणी, तेजस्वी, एव विकसित आत्मायो को देख कर अथवा सुन कर प्रेम से गद्गद होजाना, उनके प्रति बहुमान एव सम्मान प्रदर्शित करना, प्रमोद-भावना हैं । प्रमोद-भावना का अभ्यास करने से सद् गुणो की प्राप्ति होती है। ईर्ष्या, डाह और मत्सर आदि दुर्गुणो का समूल नाश हो जाता है, फलतः साधक का हृदय विशाल, उदार, एव उदात्त हो जाता है । हजारो-लाखो सज्जन, पूर्व काल मे इसी प्रमोद-भावना के वल से ही अपने जीवन का कल्याण कर गए है। नमस्कार से लाभ आज तर्क का युग है । प्रश्न किया जाता है कि महान् आत्माओ को केवल नमस्कार करने और उनका नाम लेने से क्या लाभ है ? अरिहन्त आदि क्या कर सकते है ? । प्रश्न सुन्दर है, समाधान चाहता है, अत उत्तर पर विचार करना चाहिए। हम कब कहते है कि अरिहन्त, सिद्ध आदि वीतराग हमारे लिए कुछ करते है ? उनका हमारे उत्थान या पतन से कोई सीधा सम्बन्ध नही है । जो कुछ भी करना है हमे ही करना है। परन्तु, आलम्बन की तो आवश्यकता होती है । पाच पद हमारे लिये पालम्बन हैं, आदर्श हैं, लक्ष्य हैं । उन तक पहुचना, उन जैसी अपनी आत्मा को भी विकसित करना, हमारा अपना आध्यात्मिक ध्येय है। कर्तृत्व का अर्थ स्थूल दृष्टि से केवल हाथ-पैर मारना ही नही है। आध्यात्मिक क्षेत्र मे निमित्तमात्र से ही कर्तृत्व आ जाता है । और, इस अश मे जैन-धर्म का दूसरे कर्तृत्व-वादियो से समझौता होजाता है। परन्तु, जहाँ कर्तृत्व
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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