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सामायिक-सूत्र का अर्थ स्थूल सहायता, उद्धार एव अलौकिक चमत्कार-लीला आदि लिया जाता है, वहाँ जैन-धर्म को अपना पृथक् स्वतत्र मार्ग चुनना होता है ।
अरिहन्त आदि महापुरुषो का नाम लेने से पाप-मल उसी प्रकार दूर हो जाते है, जिस प्रकार प्रात काल सूर्य के उदय होने पर चोर भागने लगते है। सूर्य ने चोरो को लाठी मार कर नही भगाया, किन्तु उसके निमित्तमात्र से ही चोरो का पलायन हो गया । सूर्य कमल को विकसित करने के लिए कमल के पास नही आता, किन्तु उसके गगन मडल मे उदय होते ही कमल स्वय खिल उठते है। कमलो के विकास मे सूर्य निमित्त कारण है, साक्षात्कर्ता नही। इसी प्रकार अरिहन्त आदि महान् आत्माओ का नाम भी ससारी आत्मानो के उत्थान में निमित्त कारण बनता है । सत्पुरुपो का नाम लेने से विचार पवित्र होते है । विचार पवित्र होने से असत्सकल्प नही हो पाते हैं। प्रात्मा मे वल, साहस, शक्ति का संचार होता है, स्वस्वरूप का भान होता है। और तब कर्मवन्धन उसी तरह नष्ट हो जाते है, जिस तरह लका में ब्रह्मपाश मे बधे हुए हनुमान के दृढ बन्धन छिन्न-भिन्न हो गए थे। कव? जबकि उसे यह भान हुआ कि मैं हनुमान हूँ, मै इन्हे तोड सकता हूँ।
गुण-पूजा
जैन-धर्म की जितनी भी शाखाए है, उनमे चाहे कितना ही विस्तृत भेद क्यो न हो, परन्तु प्रस्तुत नमस्कार-मत्र के सम्बन्ध मे सव-के-सब एकमत है। यह वह केन्द्र है, जहा हम सब दूर-दूर के यात्री एकत्र हो जाते है। इसमे मानव-जीवन की महान् और उच्च भूमिकाओ को वन्दन करके गुण-पूजा का महत्व प्रकट किया गया है। आप देखेंगे कि हमारे पडौसी सप्रदायो के मत्रो मे व्यक्तिवाद का प्राबल्य है। वहाँ पर कही इन्द्र की स्तुति है तो कही विष्ण, शिव, ब्रह्मा, चन्द्र, सूर्य आदि की स्तुतियाँ हैं। परन्तु, नमस्कार-मत्र आपके समक्ष है, आपको इसमे किसी व्यक्ति-विशेप का नाम नही मिलेगा। यहाँ तो गुणो के विकास से जो श्रेष्ठ हो गये हैं, उनको नमस्कार है, भले ही वे किसी भी जाति, वर्ण, देश, वेप या सप्रदाय से सम्बन्ध रखते हो । वाह्य जीवन की विशेषताओ का प्रश्न नही है, प्रश्न है आत्मा की आध्यात्मिक विशेषतानो का । अहिंसा, सत्य आदि आध्यात्मिक गुणो का विकास ही गुण-पूजा का कारण है।