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________________ १८० सामायिक-सूत्र तेज क्षमा धृति शौचमद्रोहो नातिमानता । भवन्ति सम्पद देवीमभिजातस्य भारत ॥ ३ ॥ तेज-अहिंसा आदि गुण-गौरव के लिए निर्भय भाव से प्रभावशाली रहना, क्षमा, धैर्य, शौच-मन, वाणी शरीर की प्राचरण-मूलक पवित्रता, अद्रोह-किसी भी प्राणी से घृणा और वैर न रखना, अपने-अापको दूसरो से वडा मानने का अहकार न करना और नम्र रहना-ये सब दैवी सम्पत्ति के लक्षण है। उक्त गुणो का धारक मानव, साधारण मानव नही, देव है-परम देव परमात्मा के पद का आराधक है। ग्रासूरी भावना से निकल कर जव मनुष्य दैवी भावना मे पाता है, तब वह जीवन की अमर पवित्रता प्राप्त करता है, माया के बन्धन से छ टता है, विश्व का गुरु बनता है, और बिना किसी भेदभाव के सबको अजर, अमर सत्य का ज्ञान-दान देकर मुमुक्षु जनता का उद्धार करता है । वस्तुत विचार किया जाए, तो गुरुदेव का पद, देवता तो क्या, साक्षात् परमेश्वर के समान है। परमात्मा का अर्थ है-परम अर्थात् उत्कृष्ट प्रात्मा। गुरुदेव की आत्मा साधारण आत्मा नही, उत्कृष्ट प्रात्मा ही है। मानव-जीवन मे काम, क्रोध, मद, लोभ वासना आदि पर विजय प्राप्त करना आसान काम नही है । बडे-बडे वीर, धीर, शूर भी इन विकारो के आवेग के समय हतप्रभ हो जाते है । भयकर गजराज को वश मे करना, काल-मूर्ति सिंह की पीठ पर सवार होना, ससार के एक छोर से दूसरे छोर तक विजय प्राप्त कर लेना बहुत ही आसान है, परन्तु अपने अन्दर मे ही रहे हुए विकार-रूप शत्र ओ पर विजय प्राप्त करना, किसी विरले ही आत्म-साधक का काम है। कोई महान् प्रतापी एव तेजस्वी आत्मा ही अन्तरग शत्रुओ को नष्ट कर सकता है। अतएव एक प्राचार्य ने ठीक ही कहा है कि स्त्री और धन-इन दो पाशो मे सारा ससार जकडा हुआ है। अत जिसने इन दोनो पर विजय प्राप्त करली है, वीतरागता धारण करली है, वह दो हाथो वाला साक्षात् परमेश्वर है कान्ता कनक-सूत्रेण, वेष्टितं सक्ल जगत्, तासु तेषु विरफ्तो यो, द्विभुज परमेश्वर । जैन-साहित्य मे भी इसी भावना को लक्ष्य मे रखकर गुरु देव को
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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